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________________ पञ्चम आश्वासः १२३ मा यहीत प्रत्यायसेन तासु अलकेलिसक्तस्वान्तासु मध्ये यशोमसिमहारानमहादेमाः जलिका मदनमञ्जरिका मामानाहि । ततस्तख़त्ताताकणनकुपित मतिः स महोपतिराहूया विदेश सफलजलष्यालविलोपमाय वैवस्वतसंन्यसन्निभसरवर संचरखीवरनिकरम् । ते घ कैवतास्तदादेशादुत्तरलतरोतामकराचरितलिताः सत्वरं सगुगलमालयापाणय'स्तरीतर्गतवरतरणतरण्डवेडिको पसंपन्नमरिकरास्ता तरङ्गिणौमवतेः। उडीनाडिम्भमाकुलभवनालोमिनोकामनं लोत्तालबिलान्तरालयसनग्लानालगर्वा कम् । प्रायः पङ्किलगर्तपरमिलहीलयबाले मुहस्तस्त्रोतः कलुषोवमूव विवाग्राहं विगाहत्ततः ॥३७॥ पुनरहमहमिकया तत्सरिस्नोतसि तेषु विहितसफलजलचरग्रहणोपायेषु तस्य चौलूकेयस्य यमदंष्ट्राकोटिकुष्टिल: पपात गलनाले गलः । तत्संगमान्मम छोपरि भ्रमणकालचककरालं जालम् । पुनरस्मग्रहणानन्दितममोभिस्त पवेधिभिरा होती है। जिसका उदररूपी वन क्षण-क्षण में गोली हुई मारपीमि से जिन एनं जिसने वैसा मच्छों के समस्त पक्ष ( पिता, माता व पुत्रादि कुटुम्ब ) के भक्षण करने में अवसर प्रारम्भ किया है जैसे यमराज जीवों के समस्त पक्ष के भक्षण करने में अवसर प्राप्त करता है और जो, मुझ रोहिताक्ष नामके मच्छ को पकड़कर खाने के निमित्त लौटा हुआ था, ऐसो 'मादनमजरिका' नाम की स्त्री को पकड़ लिया, जो कि जलकोड़ा में आसक्त चित्तवाली उन नगर की स्त्रियों के मध्य यशोमतिमहाराज की कुसुमावली नाम की महादेवी की दासी थी। इसके बाद ‘मदनमरिका' नामकी दासी के पकड़ने का समाचार सुनने से कुपित बुद्धिवाले यशोमति महाराज ने यमराज की सेना-सरीखे शोघ्र सम्मुख आते हुए मछुआरों के समूह को बुलाकर समस्त जलचर दुष्ट जन्तुओं के विनाश के लिए आदेश दिया। फिर वे सम्मुख आये हुए मल्लाह यशोमति महाराज की आज्ञा से ऐसे होकर उस प्रसिद्ध सिप्रा नदो में उतरे । जिन्होंने विशेष बेगशाली व ऊँचे किये हुए हस्ततलों से प्रास्फोटित (कोड़ाएँ या विहार ) किये हैं और जिनके हस्त लट्ठ, गल ( मच्छों को वेधन करनेत्राला लोहे का काँटा) व जालों के ग्रहण करने में व्यापार-युक्त हैं तथा जिनका परिवार नौका, तृणमयघोटक, तुवरतरङ्ग ( तुम्बी), फलक, क्षुद्रनीका व परिहार नोका इनसे परिपूर्ण है। फिर बिलोषित हा सिना नदी का पर वारम्वार कलखित आ. जिसमें पक्षियों के बच्चे उड़ गए हैं। लिनी-वन कम्पित हो रहा है । जिसमें जलसों के बच्चे दोनों तटों में उत्कण्ठित हैं एवं बिलों के मध्य में चलने से ग्लान ( नष्ट उद्यमशील ) हैं एवं जहाँपर कछुओं के बच्चे बहुलता से कीचड़-सहित गड्डे के मध्य में स्थित हुए भंसाओं के साथ एकत्रित हो रहे हैं, एवं जिसमें करादि जलजन्तु पराधीन हुए हैं ।। ३७ ।। तदनन्तर ( सिपा नदी के प्रवाह में अवगाहन करने के बाद ) जब ये मल्लाह परस्पर के अहङ्कार-से उस सिप्रा. नदी के प्रवाह में समस्त जलचर जन्तुओं ( मकर-आदि ) के पकड़ने का उपाय करनेवाले हुए तब उग शिशुमार (चन्द्रमति का जीव-मकर-विशेष) को कण्ठरूपी नाल में यमराज की दाँद के अग्रभाग-सरीखा वक्र लोहे का कांटा गिरा ओर उस शिशुमार के संगम से मेरे ( यशोवर का जीव-रोहिताश महामच्छ के ) अपर भी ऐसा जाल पड़ा, जो कि भ्रमण करता हुआ व असमय में प्राप्त हुआ यमगज के चक्र के समान रोग (भयानक) था। तत्पश्चात् उस यशोमति महाराज ने हमारे पकड़ने से हर्षित चित्तवाले इन मछुआरों से लाये हा मुझे ( रोहि १, 'तरीवर्णतुम्बतरण्डवैडिकोपसम्पन्नपरिकराः' ह. लि. प्रति घ। २. अतिशयालंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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