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________________ १२२ यतिलकचम्पूकाव्य सापि मपीयाम्बा कृतकृष्णपन्तगतनुस्यागात्तत्रैव शिशुमारलया जन्मासादयामाप्त । एकवा तु तस्यामेव सीकरासारतारफितसकलहरिति सरिति निवाघधाहवायणरसेषु शुचितमाशाखादिवसेष मध्यकर्णवतंसकाः सरलितप्रान्सप्रलम्बालकाः शोर्यत्कम्जललोचनाः परिगलगण्डस्थलीचन्दनाः । संस्कम्पस्तनमण्डलाः प्रयिलमल्लीलाजशाहाकुलाः क्रोन्ति स्म पुराणमाः प्रियतमरासेव्यमाना इव ॥३६॥ तत्रवायसरेऽमडीणाक्षोभक्षामनिद्रोफेणानुमापुच्छाच्छोटनो लदविच्छिम्नच्छटस्वच्छसलिलकस्लोलकल्पितजलवेवसानिकेतकेतुमालेन निजनिरवधिप्रधावप्रारम्भर्मण्यमानपरस्पां कलशामिव फेनाविलावतंमण्डली फूलवन्ती कुर्वता प्रतिक्षणसंधुक्यमाणावाशुशुक्षणिक्षापितपुदिर कक्षेण नीरेचरत्यक्षपक्षभक्षणाशितक्षणेनेव शूलाक्षपतिना तेम चुप्लुकोमनुना हजारों धाराओं से जहाँपर गगन तल में अनेक विजलियाँ उत्पन्न को गई हैं, महान अजगर सरीखी देहवाला 'रोहिताना नामका मच्छ हुआ। रोहिताक्ष नाम के मच्छ के जलक्रीड़ा में रत होनेपर जब मैं ( रोहिताक्षमच्छ) सिप्रा नदी में अपना शरीर डुवोता था तब वह सिप्रा नदी अपना तट भेदन करनेवाली होती थी और जब मेरा (रोहिताज का ) शरीर सिप्रा नदी से बाहिर उछलता था तब वह सिप्रा नदो अल्पपूरवाली हो जातो थी, एवं जब में उसमें तिरछे रूप से स्थित होता था तब वह पुल-बन्ध की शोमा को आचरण करने लगती है ॥ ३५ ॥ हे मारिदत्त महाराज ! उस मेरी माता चन्द्रमति ने भी धारण की हुई काले साँप को पर्याय छोड़कर उसी सिप्रा नदो के अगाध जलाशय में "शिशुमार' नाम के भयानक जलजन्तु ( मकर-विशेष ) का जन्म धारण किया। पुनः एक समग उछले डा जलकण रामदों में समस्त दिशाओं को ताराओं से व्याप्त करनेवाली उसी सिप्रा नदी में ज्येष्ठ मास के दिनों में, जिनमें धूप के सन्ताप से भयानक रस पाया जाया है, ऐसी स्त्रियां क्रीड़ा करती यों। जिनके कर्णपूर जलबेग से नीचे गिर रहे हैं। जिनके [ मस्तक के ] प्रान्तभागों पर वर्तमान लम्बे केश सरल हुए हैं। जो ऐसे नेत्रों वाली हैं, जिनका कज्जल जलवेग से गल रहा है। जिनके सुन्दर मालों को विलेपन रचना चारों ओर से गल रही है। जिनके स्तनमण्डल ( कुच-भर ) कान्तियुक्त या आनन्द-प्रद हैं । जो शोभायमान लीलाबाली कमल-खरोखी भुजाओं से अस्थिर हैं और जो अपने पतियों से सुख क्रीड़ा में भोगी जारही कामिनियों-सी शोभायमान हो रही है। अर्थात्-जिसप्रकार प्रियतमों द्वारा सुखक्रीड़ा में भोगी जा रही कमनीय कमिनियाँ उक्त गुणों से युक्त होती हैं। अर्थात्-जिनके कानों के कर्णपूर, कामक्रीड़ा से नीचे गिर रहे हैं, जोर जो सरल कैश युक्त, कामक्रीड़ा से निकालते हुए कज्जलों से युक्त नेत्रवाली, सुन्दर गालों पर की हुई चन्दनादि को चित्ररचना से होन, चञ्चल स्तनमण्डलों से सुशोभित एवं नृत्य करतो हुई भुजाओं से व्याप्त होतो है ॥ ३६ ॥ उस नागरिक स्त्रियों को जलक्रीड़ा के अवसर पर उस मकरी-पुत्र मकर ने, जिसकी निद्रा को अधिकता मच्छों के क्षोभ ( विशेष चलने ) से क्षीग हो गई है। प्रचुर पूंछ के ताड़न से ऊपर उछलते हुए अखण्ड धारा वाले निर्मल जल को तरङ्गों से जिसने जल को अधिष्ठात्री देवताओं के गृहों में उज्वल ध्वजाओं की श्रेणी रची है। जो प्रस्तुत सिप्रा नदी को वैशी फेनों से व्याप्त हुए आवतंमण्डल (भ्रमण-श्रेणी ) वाली कर रहा है जैसे दधिमन्थिनी कलशो ( जिसमें दही मन्थन किया जाता है, ऐसा अल्प घट ) जिसका दही अपने वेमर्यादीभूत वेग-युक्त गति के वेगों से विलोड़न किया जा रहा है, फेनों से व्याप्त हुए आवर्तमण्डल वाली १. दीपकालंकारः अतिभायालंकारश्च । २. जपमासंघारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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