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________________ पञ्चम प्राश्वासः १२१ संपन्नपुरवधाये तलवेशे यत्र राजसे वारि । उन्मोभितभुजगजगत्सुरलोकालोकवर्षणति च ॥३०॥ ईशानशीर्षोषितविभ्रमाणि खानसावासनिरन्तराणि । नीराणि पस्याः सुरशेखराणि सरितरावारिमनोहराणि ॥३१॥ देवार्चनासङ्गविधौ जनानां यस्यां प्रसूनाअलिगन्धालुब्धः । विनिर्गलत्पूर्व भवाघसङ्घः समन्ततो भाति मधुव्रतौघः ॥३२॥ यस्याः प्रधाहः सरितः प्रकामं बलिप्रसूनप्रकराभिरामः । रत्नोत्करापूरितसत्प्रवृत्तमहाध्वजस्व तनोति कान्तिम् ॥३३॥ चिलोचिमनिरीक्षणा सितसरोमहासाग, कालपाणि, १६ :शालिमाटिसा । उपान्तपुलिनाननोमालितबोचिनावानुगा मनः पुरजनस्य या हरति कामिनीवापगा ॥३४॥ तस्याः प्रभावमालयोजन के लिसरस्याः सरितो मतकोडोप्तासजलदेवताहस्तोवस्तसलिलासारधारासहस्रसंपादितानेकगगनलालशतहवे महालदे व्यतिक्रम्य तं पृषतपर्यायोदन्तमसरालशयालप्रमाणवेहः पुनरहमहो महाराज, रोहिताक्षनामा पपरोमा समभूवम् । यस्मिञ्जलीकारते फूलकषा मानतनी मपि स्पाइमिग्नकापे प्रतनुप्रवाहा । स्थिते तिरश्चीनतया च सिन्धुः सा सेतुमाधयमावधाति ।।३५।। पुष्परस से व्याप्त पराग वाला है और जो सुगन्धि के भार से नम्रीभुत है, उपरितन भाग पर स्थित हुई चञ्चल घुलि से धूसरित ( ईषत्पाण्डुर ) उज्ज्वल छन्त्र को शोभा को स्पर्श करता है। ।। २९ ।। जिस सिप्रा नदी में अधः प्रदेश में स्थित हुमा जल उज्जयिनी नगरी के प्रतिबिम्ब से प्रतिविम्बित होने से ऐसा शोभायमान होता है, जो प्रकट हुए नागलोक-सा है और जो स्वर्ग नगर के दर्शन के लिए दर्पण-सरीखा है. 1३० |1 जिस सिप्रा नदी के जल, जो कि गङ्गा नदी के जल-सरोखे मनोहर हैं। थो महादेव के मस्तक पर स्थित होने में जिनकी योग्य शोभा है । जो तपस्वियों के निवास स्थानों ( गृहों ) से अविच्छिन्न हैं और जो देवताओं के मुकुट हैं । अर्थात्देवों से मस्तकों पर धारण करने योग्य हैं । ।। ३१ ।। जिस सिप्रा नदी में देवपूजा के अवसर पर मनुष्यों को पुष्पाञ्जलि की मुगन्धि में लम्पट हुआ भ्रमर-समूह दूसरे जन्मों का निकलता हुआ पाप-समुह-सा सर्वत्र शोभायमान होता है ||३२|| पूजा-निमित्त [लाए हुए] पुष्पसमूहों से मनोहर जिस सिप्रा नदी का प्रवाह, गृत्ति (गृह के चारों ओर का स्थान ) को रत्न श्रेणियों से भरनेवाली इन्द्रध्वज पुजा को कान्ति को विशेषरूप से विस्तारित करता है"।। ३३ || जो सिधा नदी कमनीय कामिनी-सरीखी नगरवासी लोगों का चिन चुराती है। जो मछलीरूपी नेत्रोंवाली है और कामिनी भी मनोज नेत्रों से सुशोभित होती है | जो श्वेतकमलरूपी हास्य से उल्याण ( अधिक ) है और कामिनी भी हास्य-युक्त होती है। जो मधुर शब्द करनेवाली हंसनियों की सुशोभित श्रेणी रूपी कटिमेखला (करघोनी ) वाली है एवं कामिनी भी करधोनी से अलअकुत होती है। जो समीपवर्ती पुलिन (जल-मध्यवर्ती वालुका द्वीप) रूपी मुख पर उछली हुई लहरियों के शब्द से अनुगमन करती है और कामिनी भी प्रियतम को प्रमुदित करने के लिए मञ्जुल गीत गाती है' ॥ ३४॥ अहो मारिदत्त महाराज ! मैं ( यशोधर का जीव सेही ) उस पूर्वोक्त सेहो को पर्याय व्यतीत करके आलस्य से व्याप्त हुई मालब देश की कामिनियों को जलक्रीड़ा के लिए सरसी-(महासरोवर ) सी उस सिपा नदी के अगाध जलाशय में, जिसमें जलक्रीड़ा में उत्कट जलदेवतामों के हस्तों से ऊपर फेंके हुए जल-समूह की १. हेतूपमालंकारः । ४. जपमालकारः। १६ २. हेसपमालंकार: 1 ५. दातालंकारः। . उपमालंकारः। ६. सग्विणीछन्दः उपमालंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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