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________________ १५० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पविषि, तमस्काण्डखण्हापसदं रिज करछदै सराङ्गणे, कृष्णलेश्यापटलरिव करटकुलंगकलषितगेहाप्रभागवि, निरनियासिभिरिव कुणपकलेवरेषु युद्धोद्धवान्याहुतिः मृयाट्रिलदेजनीयनिवेश, जनंगमावासोद्देशे, तस्मादमृतमतिमहावेधीकृतपरापायप्रयोगायशोमतिमहाराजवाजिबिनाशोद्योगाच्च व्यतीत्य तं वस्तकातरानभावमझ सा च मयो. पाम्बिका परणायुधान्वये सहेब जन्म प्रत्यपद्यावहिं । तबनन्तरमेय ष वृषवंशयंण्ट्राक्रफचगोथरतयाचयो कान्तरगिरि मातरि पुनः काकतालीमकन्यायेन कृतकोणिकोत्कलिका, मालबालिकातीव जरत्कुटीरमिकटोत्कुष्टकुन्लायकोटरे चिराक्षवहिता सती कर्णापर्णवर्णनिर्णनावां निगृह्य परिगृह्य च तनहनिषिशेषं पोषयामास । व्यतोतस्वभावे च बालभावे फवापिसावासनविद्यापरीजनकेलिशर्मा चण्डकर्मा समाचरितस्वरविहारस्तान श्यपचपाटकोपकण्ठभूमिकायामामेकस्यांतावसापिमुतस्य हस्तगतो समालोक्यास्मत्रूपसंपदालोविस्मिसमनस्कारस्तुष्टिप्रवानोत्पाचितविवाफोतिनन्दनानन्दः समादापानीय च यशोमतिमहाराजायाधीशत् । राजाप्यावामवेक्ष्य जालाश्च: वान्न वर्णवाली है जो ऐसी मालूम पड़ती धी-मानो-भविष्य जन्म संबंधो पापी के अकुर हो हैं। जिसकी गोपानसी ( गृहाच्छादन पटलैकदेश) का पर्यन्त भाग ऐसे चमड़ों से चित्रवर्ण-युक्त है, जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-मूर्तिमान कर्म ही हैं। जिसका तृणकुटी-पटल ऐसी शुष्क मांस श्रेणियों से पाटल ( श्वेत-रक्त) है, जो ऐसी मालम पड़ती थीं-मानों-पूर्वजन्म संबंधी दुःखरूपी अग्नि की ज्वालाएं ही हैं। जिसका अङ्गण ऐसे जलकाक-पंखों से धूसर (धुमेले रंग का ) है, जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-गाढ अन्धकार के निकृष्ट खण्ड ही हैं। जिसके गृह की अग्रभागभूमि, ऐसी काक-श्रेणियों से उत्कलुषित (विशेष मलिन ) है, जो ऐसी मालूम पड़तों श्रीं-मानों-कृष्णलेश्याओं ( रोद्रपरिणामों) की श्रेणियाँ ही हैं। जिसका निवेश ( प्रवेश-द्वार ) ऐसे कुत्तों से भयङ्कर है, जिनके चित्त दुर्गन्धित मुर्दा-शरोरों में युद्ध-गर्व से अन्धे हो रहे हैं, ( अथवा पाठान्तर में जो दुर्गन्धित मुर्दा शरीरों में युद्ध करने में उद्यमशील होते हए ऊपर उछलने का प्रयत्न कर रहे हैं। जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-नरकों में निवास करनेवाले नारकी ही हैं, उस अमृतमति महादेवी द्वारा किये हुए द्वितीयवार मारण के प्रयोग से एवं यशोमति महाराज संबंधी घोड़े के विनाश के उद्योग से उस बकरे को व भैसे की पर्याय व्यतीत करके [उपर्युक्त चाण्डाल के निवास स्थान में] मैंने (यशोधर के जीव ने) और मेरी माता (चन्द्रमति नो जीव) ने मुर्गों के बंश में साथ-साथ ही जन्म धारण किया। पश्चात् हम दोनों की माता मुर्गी विलान की दाढरूपी आरे का विषय होने से काल-कवलित हुई । पश्चात्-काकतालीय न्याय ( अचानक संयोग ) से क्रीड़ा करने में उत्कण्ठा करनेवाली चाण्डाली ने, जो कि अत्यन्त जर्जरित झोपड़ी के निकटवर्ती मुर्गा पक्षी के घोंसले के निकट चिरकाल तक एकान स्थित हो रही थी, श्रोत्र समीपवर्ती शब्द के निश्चय से हम दोनों को निश्चय करके ग्रहण किया और पुत्र-सरीखा पालन किया । अथानन्तर जब हमारी वाल्यावस्था व्यतीत हुई तब किसी अबसर पर स्वच्छन्द पर्यटन करनेवाले इस चण्डकर्मा नाम के कोट्टपाल ने, जिसको विद्याधरीजनों के साथ क्रीड़ा करने का सुख समीपवर्ती है, उस क्षद चाण्डाल-की समीपवर्ती भूमि पर हम दोनों ( मुर्गा-मुर्गों) को एक चाण्डाल पुत्र के हस्तगत देखा। फिर हम दोनों की लावण्य सम्पत्ति के दर्शन से आश्चर्य-युक्त चित्त के विस्तार बाले उसने, सन्तोष (पारितोषिक) प्रदान से प्रस्तुत चाण्डाल-पुत्र को आनन्द उत्पन्न करके हम दोनों को ग्रहण किया और लाकर यशोमति महाराज के लिए दिखाया। फिर राजा ने भी हम दोनों को देखकर आश्चर्यान्वित होते हुए निम्न प्रकार विचार करके चण्डकर्मा नाम के कोट्टपाल से कहा-'अहो आश्चर्य है 'इन पक्षियों की शारीरिक रचना (लावण्य संपत्ति) समस्त मुगों को श्रेणी में श्रेष्ठतम व दूसरी ( कहने के लिए अशक्य ) व अनोखी ही है' हे चण्डकर्मा कोट्टपाल । १. गौपानसी-गृहाच्छादनपटालैकदेशः यशः ६० से संकलित-सम्पादक ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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