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________________ पञ्चम आश्वासः १४९ कि च मेद्धिविवृद्ध वन्यशिल रोल्लेख खलज्योतिष अथितिविना मलविषः । सुङ्गोत्सङ्गतमङ्गसङ्ग विवशव्यापारसारादराः स्वर्गवास निवासमानसरसा: संजज्ञिरे तामराः ॥५६॥ या स किं पुण्यपुञ्जनिफर त्रिजगज्जनानां लोकेष्वमात्किसु यशः प्रथितं जिनानाम् । इत्थं वितर्कसतिसतिविभाति विश्वंभराम्बर विशां प्रविभक्तभाषा ||५७।। ततो महामुनिजनारायन विनीतवनदेवतावितीर्ण प्रनोपहारपरिसरत्परिमलोद्याने सबुद्याने यवा तेन त्रिजगतोय मानवसंग भगवता सुबत्तेन सह तव विवादाविशेषस्य धर्मावबोधो भविष्यति तदा भवतो भविष्यन्ति प्रेषणानवद्याः पुनरपीमा विद्याः भविष्यति च भवान्नभश्वरप्रभुप्रभाव:' इत्युक्त्वा तदनूचानचरणार्थनोपचितागण्पपुण्यतया समस्त महाभागभुवनचक्रवर्तीस विद्याधरचक्रवर्ती जगामाभिलषितं विषयम् । अम्बरधरोऽप्यालगामोज्जयिनीम् । इतश्च तस्यामेधोरणपुरोपधिन्यामुज्जयिन्यामतूर देशर्षात नि भाविभकुरित कन्यं रिवस्यित्वं परितवाहिके, तिमद्भिः पर्मभिरिव श्रभिः किमरगोपामसीपयन्ते, पुरोजन्मदुःखानलक्बालाभिरिव वल्लूरमालाभिः पाटलोटहुई कान्तियाँ, जिनमें ऊपर शोभायमान होती हुई ध्वजाएँ व सुवर्णकलश वर्तमान हैं, ऐसी मालूम पड़ती थी — मानों - इस स्थान पर दुग्ध कान्ति-सी शुभ्र जिन मन्दिरों की श्रेणी ही शोभायमान हो रही है' ।। ५५ ।। जिस बसतिका की, जिसकी सुमेरु के साथ स्पर्धा करने वाली वृद्धि में सफल हुईं (विशेष ऊँची) शिखरों की रगड़ से नक्षत्र मण्डल पतित हो रहे हैं और जो कि गिरते हुए समीपवर्ती भित्तियों के रत्नों की प्रचुर कान्तियों से शोभायमान हो रही है, ऊँची मध्यभागवाली उपरितन भूमि के सङ्गम से पराधीन व्यापार से उत्तम आदर वाले देवता लोग स्वर्ग भूमि पर निवास करने के अभिमान से सरस (रमिक - प्रमुदित) नहीं हुए ।। ५६ ।। पृथिवी, आकाश व दिशाओं का विभाग करनेवाली एवं इस प्रकार कल्पना को आधार रूप जो वसतिका शोभायमान होती हुई ऐसी मालूम पड़ती थी मानों-क्या तीन लोक के प्राणियों को पुण्यपुञ्ज की श्रेणी ही है । अथवा क्या तीन लोक में अवकाश प्राप्त न करता हुआ ( न समाता हुआ ) जिनेन्द्रों का विस्तृत यश ही है | ५७ ॥ अथानन्तर उस वसतिका के उद्यान (बगीचे) में, जो कि प्रशस्त मुनिजनों की आराधना -- सेवा — से नम्रीभून वनदेवता द्वारा दिये हुए पुष्पोपहारों की फैलती हुई सुगन्धि से बहुल दीप्त है, जब तीन लोक द्वारा स्तुति किया जा रहे चरित्र वाले उस भगवान् ( पूज्य ) सुदत्ताचार्य के साथ, वाद-विवाद से विरोधरहित हुए आपको (कन्दल विलास नाम के विद्यावर को) यथार्थं धर्म का ज्ञान होगा, तब आपको पुनः ये [ विद्याधरोचित ] विद्याएं भी आकाश में भेजने में निर्दोष ( समर्थ ) होजायगी और आप भी विद्याधर के समर्थ प्रभाव से युक्त होजाओगे।' ऐसा कह कर उस अनुचान ( साङ्गोपाङ्ग द्वादश श्रुत के अभ्यासी 'मन्मथमथन' नाम के ऋषि) की चरण पूजा से संचित किये हुए नगण्य - असंख्यात पुण्य से समस्त भाग्यशाली धर्मात्मा लोक का चक्रवर्ती वह विद्याधरों का चक्रवर्ती ( 'रत्नशिखण्ड' नाम का ) अभिलपित देश को प्रस्थान कर गया और 'कन्दल विलास' नामका विद्याधर भी उज्जयिनी नगरी में आगया । अथानन्तर हे मारिदप्त महाराज ! इसी धरणेन्द्र नगरी से स्पर्धा करनेवाली उज्जयिनी नगरी के समीपवर्ती ऐसे चाण्डाल के निवास स्थान में, जिसकी बाह्यभूमि ( बाह्यप्रदेश ) ऐसी हड्डियों की श्रेणियों से १. उत्प्रेक्षालंकारः । २. उत्प्रेक्षालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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