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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्नात्वा यजेताप्तमयागमं वा पचवि ध्यानमुपाबरेना । स्नानं भवेदेव गृहाश्चिताना स्वर्गापवर्गागमसंगमाय ॥ ९४।। सरित्सरोपारिविवापिकामु निमज्जनोन्मजनमानमेव । पुण्याय चेत्तहि जलेनराणां स्वर्गः पुरा स्यावितरेषु पश्चात् ।। ९५ ॥ तदाह-रागद्वेषमवोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वशतिनः । न ते कालेन शुवधन्ति स्नानात्तोर्थशतरपि ।। ९६ ।।
षट्कर्मकामियान्नशुद्ध होमो भवेद्भूतबलिदच नाम ।
सुपरसः स्वर्गसुविस का बहिगत निलिम्पाः ।। ९७ ।। सत् 'अग्निमुखा वै वेवाः' इत्यस्यायम:-अग्निरिय भासुर मुखं येषां ते तया। चन्द्रमुखी कन्येतिवत्, न पुनरग्निरेब मुखं येषामिति, प्रतीतिविरोधात् । भोमार्थमुक्तधिया नराणां स्नानेन होमेन च नास्ति कार्यम् । गृहस्यथौ न पतेयतेर्वा धर्मो भवेन्नो गहिणः कदाचित् ॥९८।। तदुक्तम्- विमत्सरः कुचेलाङ्गः सर्वदन्तुविजितः । समः सर्वेषु भूतेषु स यनिः परिकीर्तितः ॥ १९ ॥
हे माता! यह मनुष्य लोक दो धर्म-गार्गों से प्रवृत्त हुआ है। गृहस्थों के आचार मार्ग द्वारा और मुनियों के आचार-मार्ग द्वारा । उन दोनों गृहस्य ब मुनिमार्गों की एकरूप से प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि उन दोनों के आचार ( क्रियाएँ) झोत व उष्ण-सरीखे भिन्न-भिन्न हैं । अर्थात् -जिस प्रकार शीत स्पर्श पृथक और उग्ण स्पर्श पृथक् है उसी प्रकार गृहस्थ श्रमं पृथक और मुनि धर्म पृयक है। क्योंकि दोनों के आचार एक सरीखे नहीं हैं |१९३!! गृहस्थ श्रावक को स्नान करके सर्वज्ञ, बोतराग अर्हन्त भगवान् की, अथवा आगम की पूजा करनी चाहिए, अथवा शास्त्रों का अध्ययन या धर्म ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार गृहस्थों का जल स्नान स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के संगम के लिए होता ही है। अर्थात्-गृहस्थ धर्मानुष्ठान करने से पूर्व में स्वर्ग जाले हैं, वहाँ से चय करके मनुष्य जन्म धारण करके मुनि धर्म के अनुष्ठान द्वारा मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।१४।। हे माता! नदी, तालाव, समुद्र व न्यावड़ी में डुबकी लगाना और निकालना मात्र यदि पुण्य निमित्त है तो मछली-आदि जलचर जीवों को पूर्व में स्वर्ग होना चाहिए और अन्य ब्राह्मणादि को बाद में ॥९५। शास्त्रकारों ने कहा है जो पुरुष राग, द्वेग व मद से उन्मत्त हैं, अर्थात्-खाए हुए. चतुरेन्सरीग्वे हैं एवं जो स्त्रियों में लम्पट हैं, वे सैकड़ों तीर्थों में स्नान करने ने भी चिरकाल में भी शुद्ध नहीं होते ।।२६।। स्तम्भन, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण और मारण इन छह कमों के लिए अथवा अन्न को पवित्र करने के लिए होम होता है । एवं व्यन्तरों के सन्तुष्ट करने के लिए उनकी पूजा होती है। अमृत मात्र भोजन करने वाले और स्वर्ग-सुम्न के योग्य शरीरवाले देवता क्या अग्नि में आहुति किये हुए पदार्थ का भक्षण करते है ? अपि तु नहीं करते ॥९७|| उस कारण से 'अग्निमुखा वे देवाः' इस वेदवाक्य का यह अर्थ है कि जिनका मुख अग्नि के समान प्रकाशमान है वे देव हैं। 'चन्द्रमुखी कन्येतिवत्' अर्थात्-जिस प्रकार उक्त पद का चन्द्रसरोखे मुखवाली कन्या, यह अर्थ होता है। अर्थात्-इसका यह अर्थ नहीं है कि कन्या का मुख चन्द्र ही है। उसी प्रकार उक घेद बाक्य का यह अर्थ नहीं है कि 'अग्नि ही है मुख जिनका', क्योंकि इस अथ म प्रताति से विरोध है। क्योंकि मुख को प्रतोति दन्त, ओष्ठ, नासिका, नेत्र व श्रोत्रों से होती है, अग्निरूप से नहीं। मोक्षप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बुद्धिवाले मुनियों को स्नान व होम से प्रयोजन नहीं है। तथ्य यह है कि गृहस्थधर्म, मुनि धर्म नहीं है एवं मुनि धर्म कभी भी गृहस्थ का धर्म नहीं हो सकता ॥२८॥ कहा है जो पुरुष मात्सयं ( दूसरों के शुभ में द्वेप करना) से रहित है एवं जिसका शरीर मलिन वस्त्र-सा मलिन है तथा जो समस्त कलह से रहित होता हुआ समस्त प्राणियों में समान बुद्धि रखता है, वह यति { मुनि । कहा गया है ।।२९|| स्नान तीन प्रकार का होता है-जल स्नान, व्रत स्नान और मन्त्र स्नान ! उक्त तीन प्रकार के स्नानों