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________________ ६२ चतुर्थ आश्वासः पुत्रस्य पित्रानुवरस्य भर्ना शिष्यस्य वादो गुरुणा च सायम् । सुशिक्षितस्यापि सुमेधसोऽपि न श्रेयसे स्याविह नाप्यमुत्र ॥४५॥ धवाभिषेकार्चनवन्दनानि जपप्रसंख्याश्रुतपूजनानि । यथा स लोकः कुरुते सयाम्ब प्रष्टव्य एवेष जनो भवत्या ।। ८६ ॥ मत्र्येषु घेत्सद्मसु नाकिनां वा विधाय पुण्यं पितरः प्रयाताः । तेषामपेक्षा तिजकाकभुक्तः पिपरभवेवर्षकृतनं कापि ।। ८७ ॥ गत्यन्तरे जन्मकृतां पितृणां स्वकर्मपाकेन पुराफुलेन । तत्रापि कि तनं घ इष्टमेतत्तप्तिः परेषा परपिणोति ॥ ८८ ॥ पेनापि केनापि मिषेण मान्यधर्मो विषेयः स्वहितंकसानैः । अनेन कामेन कृतः पुराणर्मार्योऽयमात्माम्मुदयप्रवीणः ।। ८९ ॥ निनिमित्त म कोऽपीह जनः प्रायेण धर्मधोः । अतः धाडारिकाः प्रोक्ताः क्रियाः कुशलबुद्धिभिः ॥ १० ॥ कि छ पर्वतोतिथिश्राद्धवारदासरतारकाः । नित्यं दातुमशक्ताना पुण्यायोक्ताः पुरातनः ॥ ९१ ।। जन्मेकमारमाधिगमो द्वितीयं भवेन्मुनोना व्रतकर्मणा च । अमी द्विजाः साषु भवन्ति तेषो संतपणं जनजन: करोति ।। ९२ ॥ द्वयेन मार्गेण जगत्प्रवृत्त गृहस्पवृत्त्या पलिकर्मणा च । तस्य यस्यापि विभिन्नसृष्टेः शीतोष्णवन्नकतया प्रवृत्तिः ॥१३॥ अब यशोधर महाराज स्पष्ट कहते हैं-है माता ! अवसर प्राप्त किया हुआ में यदि अज्ञानता से अथवा चञ्चलता से अथवा दयालुता से अथवा पूर्व में आपके द्वारा स्थापित किये हुए गुणों के कारण अपना पक्ष स्थापन करू तो आपका हृदय क्षमा करने योग्य होवे ।।८४॥ हे माता ! पुत्र का पिता के साथ, सेवक का स्वामी के साथ एवं शिष्य का गुरु के साथ वाद विवाद करना इस लोक व परलोक में कल्याणकारक नहीं है, चाहे वह ( पुत्र-आदि ) कितना ही सुशिक्षित ( विद्वान् ) व प्रशस्त बुद्धिशाली भी हो ॥८५॥ है माता! वह प्रशस्त आहेत ( जेन ) लोक, जिसप्रकार से देवरलपन, पूजन, स्तवन, मन्त्र-जाप. ध्यान व श्रत पूजा करता है उसीप्रकार से आप इससे पूछ सकती हैं, मैं क्या कहूं ॥८६॥ हे माता! जब पूर्वज लोग पूण्य कर्म करके यदि मनुष्यजन्मों में अथवा स्वर्ग लोकों में प्राप्त हो चुके तब उन्हें उन श्राद्धपिण्डों की कोई भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, जो कि ब्राह्मण व काकों द्वारा भक्षण किये गये हैं एवं जो एक वर्ष में किये गए हैं॥८॥ हे माता! पूर्वजन्म में उपार्जन किये हुए अपने कर्मों के उदय से दूसरी गति (स्वर्गादि ) में जन्म धारण करनेवाले पूर्वजनों की दूसरी गति ( स्वर्गादि ) में भी उन पूर्वजनों ने क्या यह नहीं देखा ? अथवा नहीं जाना? कि 'बाह्मणादि का तर्पण पिताओं ( पूर्वजनों को तृप्त करनेवाला है। क्योंकि वे भो श्राद्ध-आदि नहीं करते और न बेसी प्रवृत्ति करते हैं ।।८८।। हे माता ! 'आत्म-हित में श्रद्धा रखनेवाले सत्पुरुषों को, जिस किसी भी बहाने से धर्म ( दान-पुण्यादि ) करना चाहिए इस इच्छा से अपनी आत्मा की सुख-प्राप्ति करने में विचाक्षण चिरन्तन पुरुषों ने यह श्राद्ध लक्षणवाला मार्ग किया है ।।८९|| हे माता ! इस संसार में कोई भी पुरुष, निष्कारण प्रायः धर्म में बुद्धि रखनेवाला नहीं होता, इसलिए चतुर-बुद्धिशाली विद्वानों ने श्राद्ध-आदि क्रियाएँ कही हैं ॥१०॥ पूर्वाचार्यों ने निम्न प्रकार के अवसर सदा दान करने में असमर्थ पुरुषों के पुण्य निमित्त कहे हैंपर्व ( अमावास्या-आदि), तोर्थ ( गङ्गा-गोदावरी-आदि), अतिथि, श्राद्ध ( पक्ष के मध्य में आहार. दान ), वार ( रविवार-आदि ), वासर ( जिस दिन में पिता-आदि पूर्वजों का स्वर्गवास हुआ है । एवं रोहिणी-आदि नक्षत्र ॥२१|| हे माता ! मुनियों के दो जन्म होते हैं-पहला जन्म उत्पन्न होना ( गर्भ से निकलना ) और दुसरा जन्म दीक्षा कर्म द्वारा । इसलिए ये मुनि लोग यथार्थरूप से द्विज ( दो जन्मवाले-श्राह्मण । हैं। उन मुनिलक्षण-युक्त ब्राह्मणों का सन्तर्पण ( चार प्रकार के दान द्वारा सन्तुष्ट करना ) जैनजन ( आर्हत लोक ) करता है [ अतः हे माता ! आपने कैसे कहा कि जेनों के यहाँ ब्राह्मण-सन्तर्पण नहीं है ] ॥९॥
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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