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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
उद्धरः पशूनां सशं प्रसन्ते ये लज्जमा शीलगुणेन होना: । त्वत्तः परस्तेः सह कोहि गोष्ठों करोतु देवजनिन्वपच ॥७७॥१ नामापि पूर्व न समस्त्यभोषामभूत्कलौ दर्शनमेतदीयम् । देवो मनुष्यः किल सोऽप्यनेकस्त एवमिच्छन्ति च निविचारम् ॥७८॥ धर्म प्रमाणं खल वेद एव वेदापरं मत्र नास्ति । यो वेव सभ्य न हि वेबमेनं वर्णाश्रमाधारमसी न वेद ।। ७६ ॥ हरे रे नाकरं का नयन्ति रुष्टाः स्वपु क्षणेन तुष्टाः प्रवन्ति च राज्यमेते ॥ ८० ॥ राजा - (स्वगतम् ।) अहो, निसर्गाबङ्गारमलिने हि मनसि न भवति खलु सुष्वासंबन्धोऽपि शुद्धये । यतः ।
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अन्तर्न विज्ञाय मुषानुरागिता स्वभावदुष्टाशयता विमूखता । युक्तोपदेशे च विगृह्य वादिता भवन्त्यमी तत्त्वविदहेतवः ॥ ८९ ॥
अपि च यः कार्यवादेषु करोति संघ स्वपक्षहानौ च भवेद्विलक्ष्यः । तत्र स्वयं सामपरेण भाव्यं केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ॥ ८२ ॥
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इयं हि तावज्जननी मदीया राज्यस्य साक्षादधिदेवता व सवं तदस्या घटते विधातुं प्रभुयंवेवेच्छति तत्करोति ॥ ८३ ॥ ( प्रकाशम् । ) अज्ञानभाषावथ श्रापनाद्वा कारुण्यतो शधिगतावकाशः । पूर्व स्वयंवाहितगुणं बुवे यदि शन्तुमतास्त्वमन् ॥ ८४ ॥
करते हैं। जो निर्लज्ज तथा शौचगुण से हीन हैं। उन दिगम्बरों के साथ, जो हरि (विष्णु), हर ब्रह्माआदि देवताओं तथा ब्राह्मणों की निन्दा करनेवाले हैं, तुमको छोड़कर दूसरा कोन पुरुष स्पष्ट रूप से गोष्टी (वार्ता ) करता है ? ॥७७॥ है पुत्र | दन दिगम्बरों का पूर्व में ( कृतयुग, त्रेता व द्वापर आदि) में नाम भी नहीं है । केवल कलिकाल में ही इनका दर्शन हुआ है । इनके मत निश्चय से मनुष्य हो देव ( ईश्वर ) हो जाता है एवं वह ईश्वर भी बहुसंख्या-युक्त ( चोबीस ) है । वे दिगम्बर ही इसप्रकार विचारशून्य बातको मानते हैं ||७८|| हे पुत्र ! धर्म के विषय में निश्चय से वेद हो प्रमाण है। वेद को छोड़कर संसार में देव नहीं है । अर्थात् वेद ही देवता है। जो पुरुष भली प्रकार इस वेद को नहीं जानता, वह चारों वर्गों (ब्राह्मणादि ) तथा चारों आश्रमों ( ब्रह्मचारी आदि ) के आचार को नहीं जानता ॥ ७९ || हे पुत्र ! यदि तुम्हारी देवताओं में भक्ति है श्री महादेव अथवा लक्ष्मीकान्त अथवा श्री सूर्य देवता की पूजा करो। क्योंकि ये देवता कुपित हुए मृत्यु प्राप्त करते हैं व सन्तुष्ट हुए राज्य देते हैं ||८०||
उक्त बात सुनकर यशोधर महाराज अपने मन में विचारते हैं
अहो आत्मन् ! निश्चय से स्वभाव से अङ्गार-सरीखे मलिन मन को अमृत से प्रक्षालन भी शुद्धिनिमित्त नहीं होता। क्योंकि ये निम्न प्रकार चार पदार्थ तत्वज्ञान के निषेध के कारण है । चित्तवृत्ति न जान करके वृथा स्नेह करना, स्वभाव से दुष्ट हृदयता, अज्ञानता व युक्त उपदेश में बलात्कार से वाद विवाद करना ||८१|| जो पुरुष कर्तव्य- विचारों में प्रतिज्ञा करता है । अर्थात् —'यदि ऐसा नहीं होगा तो में अपनी जीभ काट लूँगा' इत्यादि प्रतिज्ञा करता है । एवं जो अपने पक्ष के निग्रह स्थान ( पराजय ) होने पर व्याकुलित या लज्जित हो जाता है उस पुरुष के प्रति मृदुभाषी होना चाहिए, क्योंकि स्पष्ट है कि किसी भी उपाय से कर्तव्य सिद्ध करना चाहिए ||८२|| यह चन्द्रमती निश्चय से मेरी हितकारिणी माता है और इतना ही नहीं, अपितु राज्य की अविष्ठात्री भी है । अतः इसको मेरे विषय में सभी कार्य ( राज्य से निकालना - आदि) करने का अधिकार प्राप्त है । क्योंकि स्वामी जो चाहता है, वही करता है अर्थात् — प्रकरण में माता जो चाहेंगी वही होगा ॥ ८३ ॥