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चतुर्थं आश्वास
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तत्प्रभुति न साभिलायं सेवते मधूनि न मांसमभिनन्दति नाटकमनुमन्यते न ह्यकव्यामालभते पशून्, षुतिस्मृतिवाक्येषु च प्रतिकूलतया प्रयच्रपुराणीति । ( प्रकाशम् । मुक्तोष्ठतया प्रसायं समीपवर्तिनः । )
देसम पुत्रस्य तन्त्रस्य व सर्वस्ववादिनः प्रजानां चलवालुवा: निशाचराः किमस्मपुत्र wari नाशयितुं युक्तः । ननु सदाहं तिवारयामि भवतः यत्रुतापमद्याप्यपरिपक्वबुद्धिः उपलीफर्वदग्ध्यात्म समारोपितपि मन्यभावः श्रीविलासरसवासनासंगात मुकुमारप्रकृतिदत्तन्वहित इव प्रसिद्धेष्वपि वस्तु विस्मयोस्फुल्ललोचनविद्यमानगलवाहितकारिणोऽपि जनस्य मुग्धतयातीवमुखनिरीक्षण कुतुहली कदाचिदपि जगन्मोहनाम्यस्तकोशलेरिखजाल फेरिव विगचर्न संगमयितव्य इति कोपसकम्पां वाचमुच्चारयन्ती तर्जयित्वा च मनाम्भूक्षेपेण मामू- अहो असंजातबुद्धिपरिपाक चार्वाक, समाकर्णय । ज्ञातः खलु भवतोऽभिप्रायः ।
तत्राहमेव समर्था धातुमुत्तरमित्यभिप्रेत्येवमवादीत्
न तर्पणं देवपितृद्विजानां स्वानस्य होमस्य न चास्ति वार्ता ।
धुतेः स्मृतेर्वासरेच बीस्ते धर्मे कथं पुत्र दिगम्बराणाम् ॥ ७६ ॥
शिवभूति पुरोहित के पुत्र शिवशर्मा ने कहा- हे माता ! तभी से यशोधर महाराज मधु आदि को रुचि - पूर्वक सेवन नहीं करते, न मांस की प्रशंसा करते हैं और न शिकार को अनुमोदना करते हैं एवं देव व पितृ कार्य में पशु हिंसा नहीं करते और वेद व स्मृति शास्त्र के वचनों में पराङ्मुखतापूर्वक उत्तर देते हैं। उक्त को सुनकर चन्द्रमति माता निकटवर्ती सेवक जनों की ओर [ क्रोध-वंश ] मोष्ट दीर्घ करके उन्हें उलाहना देती हुई प्रकट रूप से निम्नप्रकार कहती है- मेरे पुत्र व सैन्य का समस्त धन भक्षण करनेवाले एवं प्रजा से घूस लेनेवाले अरे पिशाचो ! क्या मेरा पुत्र ( यशोधर ) आपको इसप्रकार के दिगम्बरों का संगम कराकर विनाश करने योग्य है ? निश्चय से में सदा आप लोगों को निषेध करती हूँ कि हमारा पुत्र अब भी परिपक्व बुद्धिवाला नहीं है एवं जिसने झंदी विद्वत्ता द्वारा अपनी आत्मा में अपने को पण्डित मानने का अभिप्राय आरोपित किया है और लक्ष्मी की क्रीड़ा सम्बन्धी भोगानुराग की वासना द्वारा जिसको सुकुमार प्रकृति उत्पन्न हुई हैं एवं जो प्रसिद्ध पदार्थों में भी वैसा आश्चर्य से नेत्रों को प्रफुल्लित करनेवाला है जैसे चन्द्रग्रहिल (जी गर्भिणी स्त्री चन्द्रग्रहण होने पर खुली जगह शयन करती है उसका पुत्र चन्द्रग्रहिल होता है ) बालक विख्यात पदार्थों में भी आश्चर्य से नेत्रों को प्रफुल्लित करने का विनोद करनेवाला होता है । एवं जो मूर्खता से बेसा बहितकारी मनुष्य का भी विशेष रूप से मुख-निरीक्षण करने का विनोद करनेवाला है जैसे कण्ठविदारण किया जानेवाला बकरा मूर्खता से अहितकारी जन ( घातक - कसाई ) का विशेष रूप से मुख निरीक्षण का विनोद करनेवाला होता है। ऐसा हमारा पुत्र, वन दिगम्बरों के साथ कदापि संगम कराने योग्य नहीं हैं, जो कि इन्द्रजालियों सरीखं जगत को वशीकरण करने में ! प्रवीणता का अभ्यास किये हुए हैं।' इसप्रकार क्रोध से कम्पन-युक्त बाणो उच्चारण करती हुई मेरी माता चन्द्रमति ने कुछ भृकुटि शेप द्वारा मेरा अनादर करके मुझसे कहा - अहो बुद्धि परिपाक को उत्पत्ति से शून्य व नास्तिक मतानुयायी यशोधर ! सुन । निश्चय से मैंने आपका अभिप्राय जान लिया । में ही उस विषय में उत्तर देने में समर्थ हूँ, ऐसा निश्चय करके उसने मुझसे निम्न प्रकार कहा
हे पुत्र ! इन दिगम्बरों के धर्म में देवतर्पण, पितृतर्पण व ब्राह्मणतर्पण नहीं है एवं स्नान व होम की बात भी नहीं है। ये लोग वेद व स्मृति ( धर्म शास्त्र ) ले विशेष रूप से वाह्य हैं, ऐसे दिगम्बरों के धर्म में तुम्हारी बुद्धि किसप्रकार प्रवृत्त हो रही है ? ॥७६॥ जो दिगम्बर साधु ऊपर खड़े हुए पशु-सरीखे आहार