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________________ अष्टम आश्वासः ४६१ 'नतेगोत्रं श्रियो दानादुपास्तेः सर्वसेव्यताम् । भक्तः कीतिमवाप्नोति स्वयं गता मसीन्भजन् ॥३९५॥ इत्युपासकाध्ययने दानविषिमि त्रिचत्वारिकतमः कल्पः । भूलनतं बसान्यापर्वकर्माधिकियाः । शिवा नविषं महा सचित्तस्य विवर्जनम् ।।३९६॥ परिपहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तबानो घ वदारपेतान्येतावश यथाक्रमम ॥३९७१ 'अध्यषिमातमारोहेत्पूर्वपूर्ववतस्थितः । सर्वत्रापि समा प्रोता मानवर्शनभावनाः ॥३९८॥ पात्र गहिणी शेपास्त्रयः स्युबाचारिणः । भिक्षको दौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो पत्तिः ॥३९९।। सप्तद्गुणप्रधानत्वाचतयोऽनेकदा स्मृताः । निक्ति युक्तितस्तेषां ववसो मनिपोषस ।।४००॥ अतिथि संविभाग यत के अतीचार है, अतः श्रावक इन्हें छोड़ देवे ॥ ३९४ ।। मुनियों की स्वयं सेवा करनेवाले दाता को मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र का बंध होता है, दान देने से लक्ष्मी प्राप्त होती है, उपासना करने से समस्त लोक द्वारा सेवनोय होता है एवं उनकी भक्ति करते से कीर्ति-लाभ होता है ।। ३९५ ।। इसप्रकार उपासकाध्ययन में 'दानविधि' नाम का तेतालोसबा कल्प समाप्त हुआ। ___ग्यारह प्रतिमा आचार्य श्रावकों को निम्नप्रकार ग्यारह प्रतिमाएं ( चारित्र के पालन करने की श्रेणिर्या ) कहते हैं। दर्शन, बत, सामायिक, प्रोषधोपवास, आरंभत्याग, दिवामैथुनत्याग, ब्रह्मचर्य, सचित्तत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा। इनमें पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं के चारित्र को पालन करने में स्थित होकर ही आगे-आगे की प्रतिमाओं का चारित्र पालन करना चाहिए । जैसे दर्शन-प्रतिमा के चारित्र-पालन पूर्वक व्रत प्रतिमा की आराधना करनी चाहिए। उक समस्त प्रतिमाओं में रलत्रय ( सम्यग्दर्शन-आदि) को भावनाएं एक सरीखी कही गई हैं। श्रावकों को इस ग्यारह प्रतिमाओं में से पहले की छह प्रतिमा के धारक गृहस्थ कहे जाते हैं | सातबी, आठवीं और नौवीं प्रतिमा के धारकों को ब्रह्मचारी समझने चाहिए और अन्तिम दो प्रतिमा के धारक भिक्षु समझने चाहिए और इन सबसे ऊपर मुनि होते हैं ।। ३९६-३९९ ॥ भावार्थ-निरतिचार सम्यग्दर्शन के साथ अष्ट मू लगुणों का निरतिचार पालन करना पहली प्रतिमा १. तथा चाह थीसमन्तभद्राचार्य: 'उच्चर्गोत्रं प्रणते गो बानादुपासनात् पूजा । भक्के मुन्दरणं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिषिषु ।। ११५ ।। -रल । २. तथा चोक्त-'दसण वय सामाइय पोसह सपिचत्त राइ भत्ती य । वंभारम्भपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे ।। -चारित्तपाइड २१ । तथा चाह श्रीभगवज्जिनसेनाचार्य:'सद्दर्शन व्रतोद्योत समता प्रोषषव्रतम् । सचित्तसेवाविरतिमहः स्त्रीस गवर्जनम् ।। १५९ ।। प्राह्मचर्यमथारम्भपरिग्रहपरिच्युतिम् । तत्रानुमननत्याग स्वोद्दिष्टपरिवर्जनम् ॥ १६० ।। स्यानानि गृहिणां प्राहुः एकादश गणाधिपाः ।' --महापुराण पर्व १० । तथा चाह विद्वान् आशापरः-- दर्शनिकोऽथ व्रतिक माथिको प्रोपोपवासो च । सचितदिवागथुनविरतो गृहिणोऽणुयमिप होनाः षट् ॥ २ ॥ अग्रहारम्मपरिग्रहधिरता गिनस्त्रयो भष्पाः । अनुमलिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥ ३॥' -सागर धर्मा० अ०३। ३. दर्शनप्रतिमापूर्वकं व्रतप्रतिमामाराधयेदित्यर्थः । ४, प्रथमप्रतिमादिषु क्रमेण रलायभावनाः सदृशाः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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