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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
जिवेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्याश्मानमात्मना। गृहस्थो वानप्रस्थो वा स जितेनिय उच्यते ॥ ४०२ ॥ मानमायामवामर्षश्च पण त्क्षपणः स्मृतः । यो न धान्तो भवेद्भ्रान्तेस्तं विदुः श्रमणं बुधाः ॥ ४०२ ॥ यो 'हताशः प्रशान्ताशतमाशाम्बरमूधिरे । यः सर्वसत्यः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ ४०३ ॥
है । जो निःशल्य होकर पांच अणुव्रतोंको निरतिचार पालन करता हुआ सात शोल धारण करता है । वह व्रत प्रतिमाधारी है । पूर्वोक्त दो प्रतिमाओं को धारण करके तीनों सन्धाओं में यथाविधि सामायिक करना तीसरी सामायिक प्रतिमा है। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को नियम से उपवास करना चोथी प्रोपोपवास प्रतिमा है। कृषि व व्यापार आदि का त्याग करना पाँचवीं आरम्भ त्याग प्रतिमा है । जो अपनी स्त्री से दिन में रतिविलास न करके उसके साथ हँसी मजाक भी नहीं करता वह दिवा मैथुन त्यागी है। कोई आचार्य इसके स्थान में रात्रिभूक्तित्याग को कहते हैं, उसका अर्थ यह है रात्रि में सभी प्रकार के आहार का निरतिचार कृत कारित व अनुमोदनापूर्वक त्याग किया जाता है। मन, वचन, काम और कृत कारित व अनुमोदना से स्त्रीसेवन का त्याग, सातवीं ब्रह्मचयं प्रतिमा है। सचित वस्तु के खाने का त्याग करना अर्थात् कच्चे मूल, पत्तं -आदि प्रत्येक वनस्पतिकायिक शाक या फल मक्षण न करके उन्हें अग्नि में पकाकर या आचार शास्त्र के अनुसार प्रासुक करके भक्षण करता है, यह संचित त्याग प्रतिमाधारी है। समस्त परिग्रह को त्याग देना प्ररिग्रह त्याग प्रतिमा है । समस्त आरम्भ, परिग्रह व लौकिक कार्यों में अनुमति न देकर केवल भोजनमात्र में अनुमति देना दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है । जो उक्त दश प्रतिमाओं का चारित्र पालन करता हुआ गृहत्याग करके मुनियों के आश्रम ( वन ) में जाकर गुरु के समीप व्रत ( ग्यारहवीं प्रतिमा का चारित्र ) धारण करके तप करता है और खण्डवस्त्र या लंगोटी मात्र धारण करता हुआ भिक्षा भोजन करता उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाघारी है। इसके दो भेद हैं, क्षुल्ल व ऐलक | शुल्लक कौपोन (लगोटी ) व खण्डवस्त्रधारी वह ग्यारहवीं होता है और ऐलक केबल कोपीन मात्र धारण करता है। क्षुल्लक केशों का मुण्डन करता है और ऐलक केश लुञ्चन करता है, यह उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। इनमें आगे की प्रतिमाओं में पूर्व पूर्व की प्रतिमाओं का चारित्र अवश्य होना चाहिए एवं रत्नत्रय की भावना 'उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होनी चाहिए ।
विमर्श
यहाँ पर ध्यान देने योग्य यह है कि शास्त्रकार श्रीमत्सोमदेवसूरि ने पांचवीं सचित्तत्याग प्रतिमा की जगह आठवीं आरम्भ त्याग प्रतिमा का उल्लेख किया है एवं आठों प्रतिमा की जगह पाँचवी प्रतिमा का । जबकि अन्य वाचकाचारों में ऐसा व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अतः क्रमिक त्याग की दृष्टि से पूर्वाचार्यों का निरूपण सही मालूम पड़ता है । परन्तु हमने उक्त दोनों लोकों का अर्थ प्रत्यकार के अनुसार ही किया है। मुनियों के विविध नामों का अर्थ
उन-उन गुणों की मुख्यता के कारण मुनि अनेक प्रकार के कहे गये हैं । अव उनके उन नामों को युक्तिपूर्वक निरुक्ति (व्युत्पत्ति-पूर्ण व्याख्या) कहते हैं, उसे मुझसे सुनिए । ४०० ॥ जो समस्त इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा द्वारा आत्मा को जानता है, वह गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, वह जितेन्द्रिय कहा जाता है ॥ ४०१ ॥ गर्व, कपट, मद व क्रोध का क्षय कर देने के कारण साधु को 'क्षपण' कहा गया है और अनेक स्थानों में ईर्यासमिति पूर्वक विहार करने से थका हुआ नहीं होता, इसलिए विद्वान् उसे 'श्रमण' जानते हैं ||४०२|| जो पूर्व आदि दश दिशाओं के परिमाण से रहित है और जिसकी समस्त प्रकार की लालसाएँ (जीवन, बारोग्य, १. दिग्परिमाणरहितः