________________
अष्टम आवोस:
"रेणात्क्लेश राशीमाथिमा हर्मनीषिणः । भाग्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कथं मुतिः ॥ ४०४ ।। यः पापनाशाय यतते स यतिर्भवेत् । योऽनोहो होहेऽपि सोनगारः सतां मतः ॥४०५॥ आत्माज्युद्धिकरं न सङ्गः कर्मदुर्जनेः । स पुमायुविख्यातो नाम्युप्लुतमस्तकः ॥ ४०६ ॥ धर्मकर्मफलेनी निवृत्तोऽधर्मकर्मणः । तं निर्मममुशन्सीह केवलात्मपरिष्द्धवम् ॥४०७ ॥ पकतयातीतस्तं मुमुचते पाहस्य हेम्मो वा यो बद्धो बद्ध एव सः ॥ ४०८ ॥ निर्ममो निरहंकारो निर्माणमवमत्सरः । तियायां संस्तवे व समधोः शंसितव्रतः ।।४०९ ।। atsara यथाम्नायं तत्वं तस्वकभावनः । वाचंयमः स विज्ञेयो न मौसी पशुषः ॥ ४१० ॥ भूते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे बने । बोच्चः सर्वदा चेताः सोऽनुयामः प्रकीर्तितः ॥४११।।
ሮ
४६३
मांग व उपभोग संबंधी तृष्णाएँ ) शान्त (नष्ट ) हो चुकी हैं, इसलिए विद्वान आचार्यों ने उसे 'आशाम्बर' कहा है और जो समस्त प्रकार के वाह्य व आभ्यन्तर परिग्रहों का त्यागी है अतः उसे 'नग्न' कहा गया है। ।। ४०३ || समस्त दुःख समूह का संवरण ( आच्छादन) करने के कारण विद्वानों ने उसे 'ऋपि कहा है और अध्यात्मविद्याओं (केवलज्ञान - आदि) की प्राप्ति से पूज्य होने के कारण महापुरुष उसे 'मुनि' कहते है ॥४०॥ जां पापी जाल को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है, इसलिए वह 'यति' है और शरीररूपी गृह में भी लालमारहित होने के कारण सज्जनों ने उसे 'अनगार' माना है ।। ४०५ ।। आत्मा को मलिन करने वाले कर्मरूप दुर्जनां के साथ जिस संसर्ग नहीं है, वही पुरुष 'शुचि' कहा गया है, न कि जल से धोये हुए मस्तकबाला । अर्थात् जो जल से मस्तक पर्यन्त स्नान करता है, यह पवित्र नहीं है किन्तु जिसकी आत्मा निर्मल है, वही पवित्र है । अर्थात्यद्यपि मुनि स्नान नहीं करते, किन्तु उनकी आत्मा विशुद्ध है, इसलिए उन्हें पवित्र कहते हैं ।। ४०६ ।। जो धर्माचरण ( सम्यग्दर्शन आदि ) के फल (स्वर्ग-सुख-आदि) का इच्छुक नहीं है और अधर्माचरण ( पापाचरण) से निवृत्त है और केवल आत्मा हो जिसका परिवार है लोक में उसे आचार्य 'निर्मम कहते हैं । अर्थात- मुनि पापाचरण न करके केवल वर्माचरण हो करते हैं, और उसे भी लौकिक इच्छा न रखकर केवल अपना कर्तव्य समझकर करते हैं एवं उनके पास अपनी आत्मा के सिवा कोई भी परिग्रह नहीं रहता, अतः उन्हें 'निर्मम' कहा गया है ।। ४०७ || आचार्य, साघु को पुण्य-पाप लक्षणवाले दोनों प्रकार के कर्म-बन्धनों से मुक्त ( छूटा हुआ ) होने के कारण मुमुक्षु कहते हैं। क्योंकि जो मानव लोहे की या सुवर्ण को जंजीरों स या हुआ है, उसे बँधा हुआ ही कहा जाता है । अर्थात् पुण्मकर्म सुवर्ण के बन्धन है और पापकर्म लोहे के न है, क्योंकि दोनों हो जीव को संसार में बांधकर रखते हैं । अतः जी पापों से निवृत्त होकर पुण्यकर्म करता , यह भी फर्मबन्ध करता है, किन्तु जो पुण्य और पाप दोनों को छोड़कर शुद्धोपयोग लीन है वही 'मुमुक्ष' है ॥ ४०८ ॥ जो मूर्च्छा ( ममता ) से रहित है, अहंकार-शून्य है, जो मान, मदव ईर्षा से रहित है, जिसके अहिंसा आदि महाव्रत प्रशंसनीय हैं और जो अपनी निन्दा व स्तुति में समान बुद्धि-युक्त ( राग-द्वेष-शून्य ) है, अर्थात् --जो अपनी निन्दा करनेवाले शत्रु से द्वेष नहीं करता और स्तुति करनेवाले मित्र से राग नहीं करता, अतः उसे 'समश्री' कहते है || ४०५ ॥
जो आगम के अनुसार मोक्षोपयोगी तत्वों (जोबादि ) को जानकर केवल उसी की एकमात्र भावना ( चिन्तवन ) करता है, उसे वाचंयम ( मोनो ) जानना चाहिए। जो पशु- सरीखा केवल भाषण नहीं करता,
१. संवरणात् । २. पुण्यपापलक्षण । ३. ध्याने । ४. अनूचानः प्रवचने साथीती गणश्च स इति हेम: । 'अनूचानी विनीतं स्यात् साविचक्षणं' – इति मेदिनी ।