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________________ ४६४ यशस्तिकतामाको 'योमस्तेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पपि निष्ठितः । समस्तसश्वविबास्यः सोऽनावानिह गीयते ॥४१२॥ तत्त्वं पुमाग्मनः पृति मनस्यसकरम्बकम् । यस्य युक्तं स योगी स्थान परेच्छादुरीहितः ॥४१३॥ कामः कोषो भवो माया तोमश्वेस्पग्निपञ्चकम् । येने साधितं स स्पाकृती पञ्चाग्निसायक: ॥४१॥ शानं ब्रह्म वयाब्राह्म ब्रह्म कामविनिपतः । सम्पपन वसन्नारमा ब्रह्मचारी भवेन्नरः ॥४१५।। मान्तियोपिति यः सक्तः सम्यग्नानातिपिप्रियः । स गृहस्पो भवेशन मनोर्ववतसाधकः ॥४१६।। पाम्यम बनिश्चातर्यः परित्यज्य संयमी बानप्रापासबिनयोज वनस्पः कटम्बवान ॥४१७|| संसाराग्निविरमाच्छेदो मेन मानसिना कृतः । तं शिक्षारिनं प्राहुन तु मुखितमस्तकम् ॥४१॥ कास्ममोवियता यः सीरनीरसमायोः । भवत्परमहंसोसो नाग्निवत्सर्वमशाकः ॥४१९ वह मौनी नहीं है ।। ४१० ॥ जिसका मन द्वादशाङ्ग त के अभ्यास में, अहिंसा-आदि ब्रतों के पालन में, धर्मध्यान के चिन्तन में, प्राणि-संरक्षणरूप व इन्द्रिय-वशीकरणरूप संगम में और नियम (परिमित कालवाले भोगोपयोग वस्तु के त्याग ) में और यम ( आजन्म भोगोपभोग के त्याग ) में अत्यधिक संलग्न रहता है, उसे 'अनूचान' (द्वादशाङ्ग श्रुत का वेत्ता) कहा गया है ॥ ४११ ॥ जो इन्द्रियरूपी चोरों पर विश्वास नहीं करता और शाश्वत कल्याणकारक रनत्रयरूप-मोक्षमार्ग में स्थित है एवं जो समस्त प्राणियों द्वारा विश्वास-योग्य है, उसे आगम में 'अनाश्वान्' कहा जाता है ।। ४१२ ।। जिसकी आत्मा मोक्षोपयोगी तत्व में लीन है, मन मात्मा में लोन है और जिसका इन्द्रिय-समूह मन में लीन है, वह योगी है, अर्थात्-जिसका इन्द्रियसमूह मन में, मन मात्मा में और आत्मा तत्व में लीन है, वह योगी है। किन्तु जो दूसरी वस्तुओं की चाहरूपी दुष्ट संकल्प से मुक्त है, वह योगी नहीं ॥ ४१३ ।। काम, क्रोध, मद, माया व लोभ ये पांच प्रकार की अग्नियां हैं। अतः जिसके द्वारा ये पांचों अग्नियां वश में की गई हैं, वहीं कृतकृत्य मुनि ही पंचाग्नि-साधक है, न कि वाट्या अग्नियों का उपासक || ४१४ । सम्यम्झान ब्रह्म है, प्राणिरक्षा ब्रह्म है, कामवासना के विशेष निग्रह को ब्रह्म पाहते हैं । जो मनुष्य सम्यक् रूप से सम्यग्ज्ञान को आराधना करता है और प्राणिरक्षा में तत्पर रहता है एवं काम को जीत लेता है, वही 'ब्रह्मचारी' है ।। ४१५ ॥ जो क्षमारूपो स्त्री में आसक्त है, अर्थात्-जो अहिंसक है, जिसे सम्यग्ज्ञानरूपी अतिथि प्रिय है । अर्थात् जो सदा शास्त्र-स्वाध्यायरूपी पात्र की आराधना करता है, तथा जो मनरूपी देवता की साधना करता है, वही सच्चा गृहस्थ है ।। ४१६ ॥ जो साधु इन्द्रिय-समूह के बाह्य विषयों (स्पर्श-आदि ) को अथवा दि० के अभिप्राय से मकान वगैरह बाह्य परिग्रह को तथा अन्तरङ्ग परिग्रह (रागद्वेषआदि) को छोड़कर संयम धारण करता है उसे 'वानप्रस्थ' जानना चाहिए, किन्तु जो कुटुम्ब को लेकर वन में निवास करता है, वह वानप्रस्थ नहीं है ।। ४६७ ॥ जिसने सम्यग्ज्ञानरूपी तलवार से संसाररूपी अग्नि की शिखा विदीर्ण (नष्ट ) की है, उसे बाचार्यों ने 'शिखाच्छेदी' कहा है, केवल शिर घुटानेवाले को नहीं ।। ४१८ ॥ संसार अवस्था में कम मोर आत्मा दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं, अतः जो साधु भेदज्ञान द्वारा दूध व जल-सरोखे संयोगसंजय को प्राप्त हुए कर्म ( ज्ञानावरण-आदि ) व आत्मा को जुदा-जुदा करनेवाला है, वहीं 'परमहंस' साघु है। जो अग्नि-सरीखा १. इन्द्रियचौरेषु । २. आत्मनि मनः । *. तथा चोक्तं शास्त्रान्तरे--'उदरे गाहपत्याग्निमध्यदेशे तु दक्षिणः । आस्य आहबनोऽग्निश्च सत्यपर्वा च पूर्वनि । यः पञ्चाग्नीनिमान वेद आहिताग्निः स उच्यते । -गरुडपुराण । ३. वास्त्वादि । १. पृथक् कर्वा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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