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________________ अष्टम आश्वासः ज्ञानमनो वपुर्वसनियमरिनियाणि च । नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्थी न बषवान् ।।४२०॥ पञ्चेन्द्रियप्रवृत्त्याच्यास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः । संसाराषयहेतुत्वासाभिमुक्तोऽतिथिभवत् ।।४२१।। अब्रोहः सर्वसत्त्वेषु मनो यस्य विने विने । त पुमान्दीक्षिप्तारमा स्यानत्वजादियमाशयः ॥४२२।। दुष्कर्मधुर्जनास्पर्शी सर्वसत्वहिताशयः । स घोत्रियो भवेत्सत्यं न तु यो वाहाशीबवान् ॥४२३।। अध्यात्मातनो क्यामन्त्रः सम्परकमसमिश्चयम् । यो जुहोति स होता स्याल बाझाग्निसमेषकः ॥४२४॥ भावपुटला नाकप ह मारगोश मः !!: स मत: ।।४२५।। षोडशानामुबारात्मा यः प्रमविनस्विजाम् । सोऽध्ययुरिह योवव्या शिवशर्माध्वरोदरः ।।४२६।। सर्वभक्षी है, अर्थात् - समस्त भक्ष्य व अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण करने वाला है, वह परमहंस नहीं है ॥ ४१९ ॥ जिसका मन सदा तत्वज्ञान से प्रदीप्त है, शरीर अहिंसादि यतों के धारण से प्रदीप है और जिसको इन्द्रियाँ सदा से बनीय पदार्थों के त्याग से प्रदीप्त है वही सपस्त्री' है, किन्तु केवल वाह्य वेष का धारक तपस्वी नहीं है, अर्थात-जो नग्न होकर पीछी व कमण्डल-आदि वास बेष को धारण करता है, वह तपस्वी नहीं है ।।४२०॥ पाँचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्तियां ही पांच तिथियाँ कहीं गई हैं, जो कि ससार के आश्रय की कारण हैं। अतः जो इन तिथियों से मुक्त हो गया है, उसे 'अतिथि' कहते हैं । अर्थात्-पाची इन्द्रियाँ हो द्वितीया, एंचमी, अष्टमो, एकादशी और चतुर्दशोरूप पांच तिथियाँ हैं, जो इनसे मुक्त हो गया अर्थात्-जिसने पांचों इन्द्रियों को क्षपने वश में कर लिया, वहीं वास्तव में अतिथि है। भावा-आहार-निमित्त आनेवाले साधु को अतिथि कहते है, क्योंकि जिसके आने को कोई तिथि निश्चित नहीं उसे लोक में अतिथि पाहा है । ग्रन्थकार ने कहा है कि मतिथि शब्द का यह अर्थ लौकिक है । वास्तव में गाँचों इन्द्रियाँ ही पांच तिथियां द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशो और चतुर्दशी ) हैं और जो इनसे मुक्त हो गया (जिसने गानों इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया) बही साघु वास्तव में अतिथि है ।।४२१॥ समस्त प्राणियों को रक्षा करना ही जिसका दैनिक बज ( पूजा ) है, वह साधु पुरुष 'दीक्षितारमा' है | जो बकरे-वगैरह प्राणियों का घातक है, वह दीक्षितात्मा नहीं है ।। ४२२ ।। जो पापकर्मरूपो दुर्जनों को स्पर्श करनेवाला नहीं है और समस्त प्राणियों का हित चाहता है. वह वास्तव में 'श्रोत्रिय है, जो केवल बाह्म शुद्धि वाला है वह श्रोत्रिय नहीं है ।। ४२३ ।। जो आत्मारूपी अग्नि में दयारूपी मन्त्रों के द्वारा कर्म (झानाबरण-आदि ) रूपी ईंधन-समूह को अच्छी तरह हवन करता है, वहीं सच्चा होता ( होम करनेवाला ) है जो केवल वाह्य अग्नि में फाव-समूह रखकर उसे प्रदीप्त करता है, वह होता नहीं है ॥ ४२४ ।। ओ विशुद्ध भावरूपी पुष्पों से देवपूजा करता है, अहिंसादि व्रतरूपी सुमनों से शरीररूपी गृह की पूजा करता है एवं क्षमारूपो पुष्यों से मनरूपी अग्नि की पूजा करता है, उसे सज्जनों ने यष्टा ( पूजा करनेवाला) माना है ॥ ४२५ ।। जो महात्मा, तीर्थङ्कर प्रकृति को कारण सोलह कारण भावना ( दर्शन-विशुद्धि-आदि) रूपी पश करानेवाले ऋत्विजों का स्वामी है और जो मोक्ष-सुखरूपी यज्ञ का उच्चारक है, उसे 'अध्वर्य' समझना चाहिए ॥ ४२६ । जो शरीर और आत्मा के मेद को विशेष रूप से ज्ञापन करता है, वह विद्वानों के लिए प्रीतिजनक सच्चा वेद है, परन्तु जो समस्त प्राणियों के क्षय का कारण है, वह वेद नहीं है। १. छागादीनां घातकः । २. पोडश मानना एक ऋत्विजस्तेषां मध्येम्वः यजुर्वेदज्ञाता मुख्यः आत्मा एव । *. 'य: अनुभविचिंघाम्' ० ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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