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________________ ले यथा हि पुषस्य पुरुषशक्तिरियमतीन्द्रियाण्यङ्गनाजन से भोगेनापरमोत्पादनेन च विपदि पर्यावलम्बनेन वा प्रास्तुनिर्वहणेन वा निश्चेतुं शक्यते, तथात्मस्वभावतयातिसूक्ष्मपत्नमणि सम्यक्त्वरत्नं प्रशमसंधानुकम्पातिरेक'वाक्यं: राकलयितु शक्यम् । तत्र - 9 यागाविषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रथमं प्राज्ञाः समस्तत्रतषणम् ॥ २३१|| शारीरमानसागन्तु वेदनाप्रभवा वात्" । स्वप्नेन्द्रजालसंकल्पाीतिः संवेगमुच्यते ।। २३२ ।। सत्ये सर्वत्र चिस्य बयावर दयालयः । पर्मस्य परमं भूलमनुरूपां प्रचक्षते ॥ २३३ ॥ आप्ते श्रुते धते तत्ये चित्तमस्तित्वसंयुतम् । मास्तिक्यमास्तिकंरुक्तं मुक्तियुक्तिषरे नरं ॥ २३४ ॥ रामशेषधरे नित्यं निते निर्दयात्मनि । संसारो दीर्घसार " स्थान्तरे नास्तिकनीतिके" ।। २३५ ।। कर्मणां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमता । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं १० गतौ सर्व अतुषु ॥ २३६ ॥ २८४ गुणों से युक्त होता है और केवल आत्मविशुद्धि-युक्त क्षपकश्रेणी में वर्तमान सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं [ उक्त अभिप्राय टिप्पणीकार का है ] ॥२३०|| जैसे पुरुष की पुत्त्व शक्ति यद्यपि अतोन्द्रिय ( चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा जानने के लिए अशक्य ) है तथापि स्त्रीजनों के साथ रतिविलास करने से, सन्तान के उत्पादन से और विपत्ति में धैर्य के धारण करने से अथवा प्रारम्भ किये हुए कार्य को समाप्त करना आदि कार्यों से अनुमान प्रमाण द्वारा उसकी शक्ति का निश्चय किया जाता है वैसे ही सम्यरूपी रत्न भी यद्यपि आत्म-स्वभाव होने के कारण अत्यन्त सूक्ष्म है, तयापि अन्यभिवारी ( निर्दोष ) प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और मस्तिक्यरूप चिन्हों से उसका निश्चय किया जाता है। विद्वानों ने राग आदि दोषों से मनोवृत्ति के निवारण ( हटाने ) को प्रथम गुण कहा है, जो कि समस्त ब्रतों का आभूषण है । क्योंकि इसके विना व्रत निरर्थक हैं ।। २३१|| शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक दुःखों को उत्पन्न करने वाले और स्वप्न व इन्द्रजाल- सरीखे संसार से भयभीत होने को 'संवेग' गुण कहा है ||२३|| समस्त प्राणियों में मनोवृत्ति को दयालुता से सरस रखने को दयालु विद्वान् अनुकम्पा कहते हैं, जो कि वरूपी वृक्ष की उत्कृष्ट जड़ है || २३३|| आस्तिक आचार्यों ने आप्त ( वीतराग सर्वज्ञ तीर्थङ्कर ), द्वादशाङ्ग शास्त्र, व्रत (अहिंसा आदि) और जीवादितत्त्व इन पदार्थों के विषय में 'ये मोजूद हैं इस प्रकार की इनकी मौजूदगी स्वीकार करने वाली चित्तवृत्ति को 'बास्तिक्य' कहा है। यह प्रशस्त गुण मुक्ति श्री के साथ संयोग रखने वाले ( मुक्तिगामी) मानव में ही पाया जाता है || २३४|| जो [ मिध्यादृष्टि ] मानव सदा रागी व क्रेमी है, न कभी व्रतधारण करता है और जिसकी आत्मा निर्दयी है एवं जो नास्तिक मत को मानता है, उसका संसार दीर्घ भ्रमण वाला हो जाता है | ॥ २३५|| अभिप्राय यह है कि ऊपर कहे हुए प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये प्रशस्त गुण यथार्थ रूप से सम्यग्दृष्टि में ही पाये जाते हैं, मिध्यादृष्टियों में ये नकली होते हैं। राग, द्वेष, काम व क्रोधादि विकृत भावों का उदय न होने देना प्रशम गुण है। यह संसार बुखार व गलगण्डादि शारीरिक दुःखों एवं कामक्रोधादि से उत्पन्न होने वाले मानसिक दुःखों एवं अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि आगन्तुक कष्टों से व्याप्त है, इससे सदा डरते रहने को संवेग कहते हैं। इसी प्रकार दयालुता ओर आस्तिकता ये गुण अनन्तानुबंध काय चतुष्टय व मिथ्यात्व के अभाव हो जाने पर सम्बरदृष्टि में ही पाये जाते हैं । इन गुणों से साग सम्यक्त्व का १. अव्यभिचार । २. परिज्ञातुं । ३. 'निवारणं' दि० ( ० ) । 'निरसनं' पञ्जिकाकार! | ४. उत्पावकात्। ५. संसाराद्भीतिः । ६. सरलता । ७. मोदासंयोगधरे, मुक्तिगामिनि । ८ भ्रमणः । ९. शास्त्रे । १०. ११. चतुषु गतिपु सर्वासु ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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