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________________ षष्ठ आश्वासः २८५ शविघं तबाह आशामार्गसमु.बचमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्याभ्यां भवमवपरमावादिगावं' ५॥२३७ ।। अस्यायमर्थ:-भगवनहं सर्वज्ञप्रणीतागमानुजासंज्ञा आशा, रत्नत्रयविचारसों मार्गः, पुराणपुरणचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेशः, यतिननाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम् , सकलसमयबल सूचनाम्यानं पीजम् , प्राप्तपतवत. पदार्थ समासालापाक्षेपः संक्षेपः, द्वादशाङ्गतुवंशपूर्वप्रकोणविस्तीर्णश्रुतायसमधनप्रस्तारो विस्तारः, प्रवचनविषये "स्वप्रत्ययसमर्थाऽपः, विविध स्यागमस्य निशेषतोऽन्यतमवेशा गाहालीबमवगावम् , अवधिमनःपयकेवालायिकपुरुषप्रत्यपप्रा परमावगाढम् । निश्चय होता है। परन्तु बीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धि रूप ही है, जो कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा जाना जाता है। [अब सम्यग्दर्शन के तीन भेदों का कथन करते है-] सम्यग्दान तीन प्रकार का है। औपरामिक, क्षायिक और बायोपशमिक । जो सम्यग्दर्शन, अनन्तानुवन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति इन सात प्रकृत्तियों के उपशम होने से होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व काहते हैं और जो इन सात प्रकृतियों के शय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिक कहते हैं और जो इनके भयोपशम से होता है उसे खायोपशामिफ कहते हैं । ये तीनों सम्यग्दर्शन चारों नरकादि गतियों में पाये जाते हैं ॥ २३६ ॥ [ अब सम्यग्दर्शन के दश भेदों का निरूपण करते हैं-] आज्ञा,मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ और परमावगाद सम्यक्त्व ये सम्यादर्शन के दश भेद हैं ।। २३७ ।। इसका स्वरूप यह है-जिस तत्वश्रद्धा में भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ द्वारा रचे हुए आगम की आज्ञा को स्वोकार करने से उत्पन्न हुआ तत्त्वज्ञान पाया जाता है, उसे 'आज्ञासम्यक्त्व' कहते हैं। गम्यग्दगंनज्ञानचारिवात्मक रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के विचार से प्रकट होने वाले तत्त्वश्रद्वान को 'मार्ग सम्यक्त्व' कहते हैं। तिरेसट शलाका में विभक्त नीथंकरादि पुराण पुरुषों के चरित को श्रवण करने से उत्पन्न होने वाले श्रद्धाविशेप को उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं। साधुजनों के महावत-आदि आचार को निरूपण करने के भाजनप्राय आचाराङ्ग मूत्र के श्रवण से उत्पन्न हुए तत्वश्रद्धान को सूत्रसम्यक्त्व कहा है। समस्त शास्त्रों के समूह की सुचना का लक्ष्य वीज पद है और उसके आधार से प्रकट होने वाली तत्त्वरुचि को 'बीज सम्यक्त्व' वाहते हैं। आप्त, अत, प्रत व पदार्थो के स्वल्प वर्णन से उत्पन्न होने वाली तत्त्वश्रद्धा को संक्षेप सम्यक्त्व कहते हैं। बारह अङ्ग, चौदह पूर्व और सामायिक-आदि प्रकीर्णक आगमों के अर्थ का समर्थन सुनकर प्रकट होने वाली विस्तृत तत्त्वरुचि को विस्तार सम्यक्त्व कहते हैं। आगमके विषयों को श्रवण करके उत्पन्न हुए आत्मश्रद्धान में समर्थ तत्वश्रद्धान को अर्थसम्यमत्व कहते १. अवगाई परमात्रमाई। २, आदेशस्तथलि । ३. अभिप्रायः । ४. भाजनप्रायं । ५. समह । ६. स्वल्प । ७. आत्मनि आत्मनो वा विश्वासः । *. द्वादशाङ्गचतुदंशपूर्वप्रकीर्णकभेदेन । ८. 'पूर्ण विविघागममयगाह्योल्पद्यते यत् सम्यवस्व तदयगाद' इति टि: (ख)। त्रिवियायममध्येऽन्यतमावगाहेनोत्पद्यते एवं न, किन्तु परिपूर्ण विविधागम मन्दगाह्मोसाद्यते यत्सम्ययत्वं लवगाद इति टि० ( घ०)। १. विश्वासनोत्पर्म ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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