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________________ षष्ठ आश्वासः २८३ स्वयमेव विनीय रते कुशलाशयाः स्वयमेय, इत्यादिषन्निसर्गात् संजातमित्युच्यते । यदा श्वभ्युत्पत्तिसंशीतिविपर्यस्त - समधिकस्याधि 'मुक्ति युक्ति" युक्तिसंबन्ध सविषस्य प्रमाणन निक्षेपानुयोगोपयोगावगाह्येषु समस्तेष्वं ति "परीक्षोपक्षेपादतिक्लिन' निःशेषबुराशानिया विमाशनांशुमन्मरोचिचिरेण तत्वेषु दधिः संजायते तवा ११ वित्रसुरायासहेतुत्वात्मा निर्मापितोऽयं सूत्रानुसारो "हारो ममेवं संपादितं रत्नरचनाधिकरणमाभरणमित्यादिवत्तव भिमादाविर्भूतमयले उक्तं च अपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वयंवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षा या मिष्टानिष्टं स्वपौयात् ॥ २२८ ॥ विषं विषं वमाहुः सम्यक्त्वमात्महितमतयः । तरदभद्धानविधिः सर्वत्र च तत्र सयवृत्तिः ॥ २२९ ॥ १२ सरागषीत १४ रागात्मविषयत्वाद्विषा स्मृतम् । प्रशमाविगुणं पूषं परं चात्मविशुद्धि भा' || २३०11 १ ५ भता पूर्वक काटी जा रहीं धान्यों के प्रति यह कहा जाता है, कि ये धान्य स्वयं ही काटी जा रहीं हैं और जैसे कुशल बुद्धिशाली शिष्य स्वयं शिक्षा प्राप्त करते हैं। जब निकट भव्य को, जिसकी बुद्धि अनध्यवसाय, संशय व विपर्यय रूप मिथ्याज्ञान से आच्छादित है परन्तु जो श्रद्धा, नय, प्रमाण व सिद्धान्त शास्त्र के वेत्ता गुरु के निकटवर्ती है, जो ऐसे समस्त सिद्धान्त शास्त्रों की परीक्षा के आग्रह से, जो कि प्रमाण, नय, निक्षेप व चारों अनुयोगों के उपयोग द्वारा अवगाहन करने योग्य हैं, कष्ट उठाकर समझाया जाता है, उसे जो चिरकाल के पश्चान् रामस्त दुराशाही रात्रि को नष्ट करने के लिए, सूर्य की किरण सरीखी तत्वरुचि उत्पन्न होती है, उसे 'अधिगमज' सम्यग्दर्शन कहते हैं, क्योंकि उसमें तत्वोपदेशक का कष्ट कारण है। उसे वैसा अधिगम कहते हैं, जैसे हार बनाने वाला कहता है, कि यह तन्तुओं में पा हुआ हार मैंने बनाया है । अथवा मैंने यह रत्न खचित आभूषण बनाया है । श्री समन्तभद्राचार्य ने देवागम स्तोत्र में कहा है कि जब मानव को बुद्धिपूर्वक प्रयत्न किये बिना ही (बिना पुरुषार्थं किए ) अतर्कितोपस्थित न्याय से ( अचानक) सुख-दुःख प्राप्त होते हैं, उन्हें उसके भाग्याधीन समझने चाहिए । अर्थात् — उनमें उसका पूर्वजन्म में किया हुआ पुण्य-पाप कर्म ही कारण है और जब उसे ऐसे सुख-दुःख प्राप्त होते हैं, जिनमें पुरुषार्थं को अपेक्षा होती है उनमें उसका पुरुषार्थं कारण है। प्राकरणिक अभिप्राय यह है जब मुमुक्षू मानव में, ऐसा सम्यक्त्व प्रकट होता है, जिसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती उसे तिसगंज सम्यग्दर्शन कहते हैं। और जिसमें परोपदेश ( वेशनालब्धि ) की अपेक्षा होती हैं, उसे अधिगमज कहते हैं ॥ २२८ ॥ सम्यग्दर्शन के भेद और उसके कार्य - आत्म-कल्याण में बुद्धि रखनेवाले आचार्यों ने सम्यक्त्व के दो, तीन ओर दश भेद कहे हैं। इन सभी भेदों में तत्वों की श्रद्धा करना समान रूप से पाई जाती है ।। २२९ ।। साग जीव में ( चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों में ) पाये जाने वाले तत्त्वश्रद्धान को सराग सम्यक्त्व कहते हैं और वीतराग आत्मा में ( बारहवं गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान वर्ती अयोगीजन में ) पाये जाने वाले तत्त्वश्रद्धान को वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व के सराग - और वीतराग ये दो भेद समझने चाहिए। उनमें पहला सराग सम्यक्त्व प्रशम, संवेग व अनुकम्पा आदि बार १. शिक्ष्यन्ते । २. उपदेशकस्य 1 ३, श्रद्धा । ४ नयप्रमाणं । ५ सिद्धान्त । ६. समीपस्य उपदेष्टुः । ७. सिद्धान्तेषु । ८. 'आग्रहात्' टि० ( ख० ), 'प्रश्नस्यावलोकनात्' टि० ( च० ) । ९. क्लेशं कृत्वा संबोध्यते । १०. रविः । ११. उपदेशकस्य । १२. सूत्रमनुसरति यो हारः सूत्रमर्यादः प्रलवणादिक्लेश सहितः । १३. एकादशगुणस्थानपर्यन्तं सय १४ द्वादशादि वीतरागं । १५. क्षपण वीतरागं
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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