SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये इत्युपासकाध्यपने पारसल्यप्रवचनो माम विशतितमः कल्पः । निसोऽधिगमो' वापि तशाप्तो कारणवयम् । सम्पमस्वभाषपुमाग्यमादल्पानल्पप्रयासतः ॥२२६।। वक्तं च-आसन्नभव्यताकमहामिसंनित्बशुद्धपरिणामाः । सभ्यत्वहेतुरन्तर्वाह्योऽप्युरवेक्षकाविश्च ॥२२७।। एतयुक्तं भवति--कस्यचिदासानभव्यस्य "तन्निदा नव्यक्षेत्रकालभावभवसंपत्सेध्यस्य विपूर्तत प्रतिबन्धकाम्धकारमंबन्यस्याक्षि महशिक्षाफियालापनिपुणकरणानुबन्धस्य' नयस्य भाजनस्वातंभातदुर्गसनगन्यस्य सटिति यथास्थितवस्तुस्वरूपसंकान्तिहेतुतया स्फाटिकमणिवर्गणसगन्धस्य पूर्वभवसंभाजन वा वेवनानुभवनेन वा एमभवणाकर्णनेन वाहप्रतिनिििनध्यानेन वा महामहोत्सवनिहालनेन' वा मल्लद्धि प्राप्ताचार्यवाहनेन" वा नषु माफियु' या तन्माहात्म्पसभूतविभवसंभावनेन" वान्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनोविहारास्प खेवमनापद्य पदा जीयाविषु पदार्थेषु "यात्म्यसमधानं भवानं भवति तदा प्रयोक्तुः१९ सुकरक्रियत्वाल्लयन्से शालयः श्य प्रकार उपासकाध्ययन में वात्सल्य अङ्ग का प्रवचन करनेवाला बींसां कल्प पूर्ण हुआ। अब सम्बग्दर्शन का वर्णन करते हैं सम्यग्दर्शन को प्राप्ति दो कारणों से होता है। १. निसर्ग (परोपदेश के विना स्वभाव) से होता है और दूसरा अधिगम ( परोपदेश ) से होती है। क्योंकि किसी पुरुष को अल्प प्रयत्न करने से हो सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और किसी को प्रचुर प्रयत्न करने से सम्यक्त्व को प्राप्ति होती है ।। २२६ ॥ कहा भी है-सम्यग्दर्शन के अन्तरङ्ग कारण निकट भव्यता, दर्शनमोहनोय का उपशम, भय व अयोपसम, संजीपन और शुद्ध परिणाम है तथा बाह्य कारण उपदेश और जाति स्मरण व जिनबिम्ब-दर्शन-आदि हैं ।। २२७ ॥ अभिप्राय यह है—ऐसे किसो निकट भव्यजीव को, जो कि सम्यक्त्व के कारण योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की उत्पत्तिरूपो लक्ष्मी से सेवनीय है, जिसने सम्पत्य की उत्पत्ति में रुकावट डालनेवाले कर्मरूपी ( दर्शन मोहनीय) अन्धकार का संबंध नष्ट कर दिया है। जिसने ऐसा संज्ञी पंचेन्द्रियपन प्राप्त किया है, जो शिक्षा, क्रिया व वार्तालाप करने में निपुण है । जिसमें नये वर्तन की तरह दुर्वासना का संबंध उत्पन्न नहीं हुआ है और जो शीव यथार्थ वस्तु-स्वरूप के संक्रमण में कारण होने से स्फटिक मणि के दर्पण-सरीखा है, पूर्वभव के स्मरण से, कष्टों के अनुभव से, धर्म शास्त्र के मुनने से, जिनबिम्ब के दर्शन से, महामहोत्सवों के देखने से और महाऋद्धिधारी आचार्यों के दर्शन से एवं मनुष्यों में और देवों में सम्यक्त्व के माहात्म्य से उत्पन्न हुए ऐश्वयं के दर्शन से अथवा अन्य किसी कारण से विवाररूपी बगीचों में मन की क्रीड़ा का स्थान स्वेद प्राप्त न करके जब जीवाद मोक्षोपयोगी तत्वों में यथोक्त परिज्ञान वाला श्रद्धान उत्पन्न होता है तो उस सम्यक्त्व को 'निसर्गज' सम्यग्दर्शन कहते हैं। तब सम्यग्दर्शन का व्यवहार करनेवाले निकट भव्यात्मा द्वारा सुलभता पूर्वक प्राप्त होजाने से यह निसर्गज सम्यग्दर्शन वैसा कहा जाता है, जैसे धान्य काटने वाले कृषक द्वारा मुल १. स्वभावः । २ आक्षेपः । ३. सम्मश्चत्राप्तौ। ४. अभ्य तरकार. । ५ सम्यक्त्व । ६, कारण। *. उत्पत्ति । ७. सम्यक्व । ८. गृहीत । १. पंचेन्द्रियमनःसंबंधस्य। १०. संबंधस्य। ११. समानस्य । १२. श्रवणं श्रुत, धर्मशास्त्राकर्णनेन, मूलाचारश्रावकाचारप्रवणेनेत्यर्थः। १३. प्रलिमावलोकनेन । १४. दर्शनेन । १५. दर्शनेन । अत्र पञ्जिकाकारः प्राह--निव्यानं निहालन, वाहनं दर्शन च । हल विशोधनं वह परिफलपने अनयोः रूपमिति । १६. देवेषु । १७. अवलोकनन । १८. यथोकपरिशान । ६९. उपदेशकस्य ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy