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________________ पेष्ठ आदवासः २८१ मिव पाटल मखरा लक्ष्मीलताविर्भावोवयं 'शयमुपलक्ष्य बले, न खल्वयमेवंविधपाणितलसंबंधी गीधः परेषां याविता किन्तु याच्य इति ववव शुक्रमवगणय्ध बलिः स्वकीयां दत्तिमुदरुधारोत्तरामकार्षीत् । सतु स विष्णुमुतिविरोधन विशेकनिकर इवाकमेणोष्यमषश्चान वषिवृद्धिपरः पर्वतस्योभयतः प्रवृत्तापणा प्रवाह इव तिरःप्रस रद्देहः, "कायष रमेकमपारवज्जवेदिकायां निधायापरं वक्रमं चक्रवाललिका पुनस्तृतस्य मेदिनीमलभमानस्तपत्र 'रथस्ललन सेतुना मुरसरितरी 'पोतो हेतुना संगतिविधि सुन्दरीचरणमाविभ्रमेण १३ समाप्तिखेचरीचेतः संभ्रमेण भूगोलगीरपरिच्छेने तुलादण्डविडम्बनेन चरणन शोभितान्तरिक्ष व पुरस्का किन्नरामरस वर चारणाविवृचैिवंन्यमानपावारविन्यः संयत जनोपकारसारः स्वकार्याद्धि वृद्धि परितोषितमनीयंव्यंन्तरानिमित्रकारणखनलालतावलि बलि सवान्धवमबन्धयत् । प्रायंशयच्च सदेहं रसातल गेहम् । 3 भवति यात्र श्लोकः— י महापद्मविष्णुर्मुनीनां हास्तिने पुरे । बलिद्विजकृतं विघ्नं शमयामास वत्सलः || २२५ ॥ और लाली लिए हुए है जैसे मूंगों की रचना का विस्तार सचिक्कण व लालिमायुक्त होता है एवं जिसमें लक्ष्मी (शोभा) रूपों लता की अभिव्यक्ति का उद्गम है। 'बन्त्रि ! निस्सन्देह ऐसा हस्ततल शाली मानव दूसरों से याचना करनेवाला नहीं हो सकता, किन्तु दूसरों के द्वारा याचना योग्य होता है ।' इस प्रकार वक्रोक्तिपूर्वक बोलने वाले शुक्र मन्त्री की तिरस्कृत करके बलि ने अपना दान, जलधारा से मनोज्ञ किया । T इसके बाद विष्णु मुनि सूर्य की किरण-समूह सरीखे अपना शरीर एकदम से बेमर्याद ऊपर नीचे वृद्धिंगत करने में तत्पर हुए और वे वैसा अपना शरीर तिरछे रूप से फैलाने वाले हुए, जैसे पर्वत के दोनों पार्श्व भागों पर प्रवाहित होने वाली नदी का प्रवाह तिरछे रूप से फैलता है। उन्होंने एक पैर फैलाकर समुद्र व वेदिका पर स्थापित किया और दूसरा पैर मानुपोत्तर पर्वत की चोटी पर स्थापित किया और तीसरे पैर को रखने के लिए जगह न मिलने से उसने उससे विद्याधरों के नगरों के गृह क्षुब्ध किये। जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों सूर्य के रथ को रोकने के लिए पुल ही है। जो गंगा नदी की चौथी धारा के उत्पन्न करने में कारण है। जो देव सुन्दरियों के नगर-समूह की भ्रान्ति को उत्पन्न करनेवाला है और जो विद्याधरियां के चित्त में भय उत्पन्न करनेवाला है एवं जो भूमण्डल की गुरुता — भारीपन का निश्चय करने के लिए तराजू सरीखा है। इससे किन्नरदेव, विद्याधर व चारण आदि के समूह ने आकर उनके चरणकमलों की वन्दना की । वह संयमी जनों का उपकार करने से उत्तम था उसने अपनी विक्रिया ऋद्धि की वृद्धि से सन्तुष्ट बुद्धिवाले व्यन्तरदेवों ने स्वाभाविक दुष्टतारूपो लता के आश्रय के लिए भूमि सरीखे बलि को उसके बन्धुजनों सहित लिया और उसे शरीर सहित रसातल में पहुँचा दिया | इस विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है-संग्रमी जनों से वात्सल्य (प्रेम) करनेवाले व महापद्म राजा के पुत्र विष्णुकुमार मुनि ने हस्तिनागपुर नामक नगर में बलि ब्राह्मण द्वारा मुनियों पर किया हुआ उपसर्ग निवारण किया ।। २२५ ।। १. हस्तं । २. पुरुषः । ३. अन्यैर्याचनीयः । ४. सूर्यकिरण । ८. मानुषोत्तरगिरी | ९. सूर्यं । १०. गंगा किल त्रिपथगा १४. भूमिं । ३६ ६. तिरिछु । १२. नगरसमूह | ५. अमर्याद | ११. चतुर्थ । ७. चरणं । १३. भ्रान्तिना ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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