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________________ ૪૬ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तचिन्तामृताम्भोधी बुडमग्नतमा मन्दः । बहिर्व्याप्लो अहं कृत्वा 'द्वपमासनमाचरेत् || १५६ ।। सूक्ष्मप्राणय मायामः सग्तसर्वाङ्गसंचरः । प्रावोत्कीर्ण इवासीत ध्यानानन्वसुधां लिहम् ॥१५७॥ याणि पञ्चापि स्वात्मस्थानि समासते । तदा ज्योतिः स्फुरत्यन्तदिधले वित्तं निमज्जति ।। १५८।। चितकात ध्यानं ध्यातात्मा तत्फलप्रभुः । ध्येयमात्मागमज्योतिस्तद्विधि यातना ॥१५९॥ संरचनाममा नामसं भीममङ्गजम्। सहेत समयोः सर्वमन्तरायं 'इयातिः ।। १६० ।। १० नावामित्वमविघ्नाय न "क्लीबत्वममृत्यवे । तस्मादक्लिश्यमानात्म] परं चिन्तयेत् ॥ १६२ ॥ १ ध्यान - विधि जो अहंत भगवान् का ध्यान करने का अभिलाषी है और जो उस स्थायी मोक्षपद की प्राप्ति का छुक है, उसे सावधान होकर आगे कही जानेवाली इस ध्यानविधि का प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिए ॥ १५५ ॥ तत्वों ( अर्हन्तभगवान या जीवादि ) के चिन्तनरूपी अमृत के समुद्र में अपना मन दृढ़तापूर्वक मरन करके और उसे बाह्य विषयों की व्याप्ति से इकदम जड़ करके पश्चासन या खङ्गासन से ध्यान करना चाहिए ।। १५६ ।। धर्मध्यानो को ध्यानरूपी सुखामृत का आस्वादन करते हुए उच्छ्वास- निःश्वासरूप प्राणवायु के प्रवेश व निर्गम को सूक्ष्म करनेवाला निश्चल और समस्त अङ्गों का हलन चलन न करनेवाला होकर पाषाणघटित-सा होते हुए ध्यानस्थ होना चाहिए ।। १५७ || जब धर्मध्यानी की पांचों हो इन्द्रियाँ ( स्पर्शनादि ) बाह्य विषयों से पराङ्मुख होकर आत्मस्वरूप में लोन हो जाती है और जब उसका मन आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूब जाता है तब उसको अन्तरात्मा में सम्यग्ज्ञान रूप प्रकाश प्रकट होता है ॥ १५८ ॥ ध्यान - आदि का स्वरूप चित्त की एकाग्रता ( चित्त को ध्येय वस्तु मे दूसरी जगह व्यापारित न करना ) ध्यान है। ध्यान का फल (स्वर्ग-आदि) भोगने में समर्थ आत्मा ध्याता (ध्यान करनेवाला) है । आत्मा और श्रुतज्ञान ध्येय ( ध्यान करने योग्य ) हैं तथा यातना ( करणग्राम नियन्त्रणा - समस्त इन्द्रिय-समूह को नियन्त्रित करना ) ध्यान की विधि जाननी चाहिए ।। १५९ ।। धर्मध्यानी का परीषह-सहन धर्मध्यानी को शत्रु मित्र में समान बुद्धि-युक्त और तोष- रोष ( राग-द्वेष ) से रहित होना चाहिए । अन्यथा - राग द्वेप होनेपर उसका आर्त व रौद्र ध्यान हो जायगा और धर्म ध्यान करते समय उन समस्त अन्तरायों (विघ्नबाधाओं-उपसर्ग व परीषहों ) को सहन करना चाहिए, जो पशु-कृत हैं [ उदाहरण में जैसे सुकुमाल मुनि पर गाली ने उपसर्ग किया या ], जो देव कृत हैं, [ उदाहरण में जैसे पार्श्वनाथ भगवान् पर कमठ के जीव व्यन्तर ने उपसर्ग किया था ], जो मनुष्यों से उत्पन्न हुए हों, [ जैसे पांडवों पर कौरवों ने उपसर्ग किये थे ], जो आकाश से उत्पन्न ( वज्रपात आदि) हुए हैं व जो भूमि से उत्पन्न (भूकम्प - आदि) हुए हैं और जो शरीर कृत ( रोगादि । है ।। १६० ।। क्योंकि उपसर्ग आदि के समय असमर्थता दिखाने से धर्मध्यान संबंधी १. ऊर्ध्वमुपविष्टं च । २. सूक्ष्म उच्छ्यासनिः वायः तस्य यमः प्रवेशः आयामी निर्गमः शान्तः सर्वाङ्गसुन्दरः क० । 'शान्तः निश्चलः ' पं० । ३. निश्चल: । ४. पाषाणघटितः । ५. मध्ये अन्तरात्मनि । ५. मनसि सति । ७. ध्येयादन्यत्र व्यापाराभावः । *. 'मात्मगमं ज्योतिः क० । ८. करणग्रामनियन्त्रणा । ९. तोषरोषाम्यां विनिर्मुक्त: । १०. असमर्थत्वं । १९. कातरत्वं दीनता ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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