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________________ अष्टम आश्वास: संपूर्णमतिस्पष्टं 'सनापमानन्वसुन्दरं मपतः । सर्वसमोहित सिद्धिनिःसंशयमस्य जायेत ॥१५०।। मन्त्रोऽयमेव सेण्यः परत्र मन्त्र फलोपसम्मेऽपि । माय विटपो फलति सथाप्यस्य सियते मूलम् ॥१५॥ मत्रामुत्र व नियतं फामितफलसिद्धये परो मन्त्रः । नाभूबस्ति भविष्यति गुरुपञ्चकवाचकान्मन्त्रात् ॥१५२।। अभिलादिशानी चुमिसको हिमEि: कास सप्ति परत्र मन्त्र कायं सजन ॥१५३।। इस्पं मनो मत बाह्यमबाह्यपत्ति कृत्वा षोकनगर ममतो' नियम्प । सम्यग्जपं विवषतः मूषियः प्रयस्ताल्लोकत्रयस्य कृतिनः क्रिमसाध्यमस्ति ॥१५४॥ इत्युपासकाध्ययमे अपविधिर्नामाष्टत्रिशत्तमः कल्पः । आविध्यासुः परं ज्योतिरीप्सुस्तमाम शाश्वतम् । इमं प्यानविधि यस्नाचम्यस्यस्तु समाहितः ॥१५५॥ सार संग्रह पृ० १८ में लिखे हुए मन्त्र ( ॐ ह्रां णमो अरहताणं ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः आदि ) पढ़कर सकलीकरण विधि करनी चाहिए । पश्चात् जप-विधि आरम्भ करनी चाहिए। विद्वद्वय ५० . आशाधरजी ने प्रतिष्ठासारोद्धार में लिखा है, कि 'इस सफलोकरणरूपी बस्तर को धारण किये हुए जो मन्त्रवाला इष्ट कर्म ( पूजा व जप-आदि ) करता है, उसके कोई विघ्न नहीं आता। ॥ १४९ ।। [ पश्च नमस्कार मन्त्र के जप का फल व माहात्म्य---] ऐसे जपकर्ता के निस्सन्देह समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं, जो कि आनन्द-पद होने से मनोज चिन्नुसहित णमोकार मन्त्र को शुद्ध व स्पष्ट उच्चारणपूर्वक जपता है ।। १५० ॥ दूसरे मन्त्रों से फल-सिद्धि होने पर भी इसी पञ्चनमस्कार मन्त्र का जप करना चाहिए। क्योंकि वृक्ष यद्यपि अग्रभाग पर फलता है तथा इसकी जड़ सींची जाती है, अर्थात्-यह मन्त्र सब मन्त्रों का मूल है, अतः इसी का जप करना चाहिए ।। १५१ ।। पञ्च परमेष्ठी के वाचक इस णमोकार मन्त्र के सिवा दूसरा मन्त्र इसलोक व परलोक में निश्चित रूप से अभिलषित फलसिसि करनेवाला न हुआ है, न है और न होगा ॥ १५२ ॥ __जब यह णमोकार मन्त्र निस्सन्देह अभिलषित वस्तु के देने में कामधेनु सरीखा है और पापरूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि-जैसा है एवं ऐहिक व पारलौकिक सुख देने में समर्थ है, तब कौन जपकर्ता मानव दूसरे मन्म को जपविधि में तत्पर होगा?॥ १५३ ।। इस प्रकार मन को नियन्त्रित करके और इन्द्रियरूपी नगर को वाह्य विषयों से हटाकर आभ्यन्तर की ओर करके तथा श्वासोच्छ्वास को प्राणायाम विधि द्वारा निर्यान्वत करके जो बुद्धिमान् प्रयत्नपूर्वक सम्यग् जप करता है, उस पुण्यशाली जपकर्ता के लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है ।। १५४ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में जपविधि नाम का यह अड़तीसा कल्प समाप्त हुआ। [ अब ध्यान-विधि का निरूपण करते हैं-] १. बिन्दुसाहितं गकारस्यानुस्वारो दो पचते । २. नियन्त्र्य । ३. आध्यातुमिच्छुः । * तथा च विद्वान् आशाघर:'बमितोऽनेन सफलोफरणेन महामनाः । फुभिष्टानि कर्माणि केनापि न बिहन्यते ॥ ७० ॥ –प्रतिष्ठासारोदार अ०२१० ३६ से संकलित-सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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