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________________ अष्टम आश्वासः ४१७ *यनामिनियामो 'च्याप्तमस्तेनविप्लवम् । नाइनुपीत तमुद्देश भणेताव्यात्मसिद्धये ॥१२॥ फाल्गजन्माप्पयं बेहो एवलायुफलायते । संसारसापरोतारे रश्यास्तस्मात्प्रयत्नतः ।।१६३।। नरेऽधीरे धाम क्षेत्रेसस्में वृत्तिमा । यथा तथा वृधा मई ध्यानशून्यस्य तनिधिः ॥१६४।। बहिरतिस्लमोवारिस्पन्द दीपवन्मनः । यतत्वालोकनोल्लासि तस्याद्धधान सघीजकम् ॥१६५।। निविचारावतारामु चेतः स्रोतःप्रभूतिः । यास्मन्येव "स्फुरन्नात्मा भवेवधानमनीमकम् ॥१६६।। विघ्न दूर नहीं हो सकते और न दोनता दिखाने से जीवन को रक्षा ही हो सकती है; अतः उपसर्ग-सहन में संक्लेश परिणाम से रहित होकर परमात्मा का ही ध्यान करना चाहिए ॥ १६१ ।। धर्मध्यानी के स्थान का निर्देश धर्मध्यानी को आत्मतत्व की सिद्धि के लिए ऐसा एकान्त स्थान सेवन करना चाहिए, जहां पर उसका यह इन्द्रिय-समूह व्याकुलतारूपी चोर की विघ्न-वाघा प्राप्त न कर सके ।। १६२॥ शरीररक्षा-पद्यपि इस मानव-शरीर का जन्म निरर्थक है तथापि यह तपश्चर्था-आदि के द्वारा संसार-समुद्र से पार उतरने के लिए तुम्बी-सरीखा सहायक है अतः प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिए ।। १६३ ।। ध्यानविधि की निरर्थकता जिसप्रकार शत्रु से भयभीत हुए कायर पुरुष के लिए कवच का धारण व्यथं है एवं जिस प्रकार घान्य से शून्य खेस पर काँटों को वाड़ी लगाना निरर्थक है उसीप्रकार ध्यान न करने वाले पुरुष के लिए ध्यान की सब विधि (आसन-आदि ) व्यर्थ है ।। १६४ ।। [ शुद्धध्यान-दो प्रकार का है, एक सबीजध्यान और दूसरा अबीज ध्यान दोनों का स्वरूप निरूपण करते हैं सबीजध्यान ( पृथक्त्ववितक सवीचार शुक्लध्यान ) जैसे वायु-हित स्थान में दोपक की ली निश्चल होकर वाह्य प्रकाश से सुशोभित होती है वैसे हो जिस ध्यान में जब योगो का मन आत्मा में स्थित हुई अज्ञानरूपो वायुओं से होनेवाली चञ्चलता छोड़कर (निश्चल होकर ) जीवादि सप्त तत्वों के दर्शन से सुशोभित होता है उसे सबीजक ( पृथक्त्ववितर्क सबोचार नामक शुक्लध्यान ) कहते हैं ।। १६५ ।। अब अबीजध्यान ( एकत्ववितर्क अवीचारनामक शुक्लध्यान ) को बतलाते हैं जब योगी के चित्तरूपो झरने की प्रवृत्तियों ( प्रवाह या व्यापार ) निविचार ( संक्रमण-रहितअर्थात्-द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य-आदि के ध्यानरूप संक्रमण से रहित ) के अवतार वाली होती है, जिससे उसकी आत्मा विशुद्ध आत्मस्वरूप में ही चमत्कार करनेवाली (लीन होनेवालो ) होती है तब उसका वह ध्यान { अयोजक एकत्ववितर्कावीचार नामक शुक्लध्यान) है। भावार्थ-यहाँपर दूसरे शुक्लध्यान ( एकत्वनितक ) का निरूपण किया गया है, इसमें चित्तरूपी झरने का प्रवाह अर्थ (द्रव्य ) व पजन-आदि के संक्रमण से हीन होता है, जिससे आत्मा आत्मा में ही लीन *, स्थाने । १. व्यासङ्गः (व्याकुलता) एव स्तेनश्चोरस्तस्य विघ्नं न प्राप्नोति । २. स्थान । ३. कवय । ४. धान्यरहिते। ५. निश्चलं । ६. प्रवाह । ७. चमत्कुर्वन् । ८. एकत्ववितर्कावीचाराख्यं शुक्लव्यानमित्यर्थः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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