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________________ सप्तिम आश्वासः ३२९ 'सुप्रयुक्तेन खम्भेन 'स्वयंभूरपि वञ्ज्यते । का नामालोचना न्यत्र' संवृत्तिः परमा ययि ।। १०५ ।' पनि परामपय "महापाप्रातचेतास्तमायातशु'चमेवमवोवत् – 'अहो, बुर्दुस्ट' फिराट, किमिह खल स्वं केनचिपिशाचेन पनि पिामु पोग शेतीयोगातिलहितः, किंवा कितवण्यवहारेषु हारितसमस्तचित्तवृत्तिः, उत अहो पचित्तवम्वपिशाधिकथा कयाचिल्लटिजफया जानसबुष्प्रयत्तिः, आहोस्वित्फलवतः पावपस्यैव श्रीमतः क्रियमाणोऽभियोगो न खलु फिपि फलमसंपाद्य विधाम्पतीति धेससा केनचितुर्भेषसा विश्लाषयुनियनवमतिविपद्धमिधरसे। क्वाहम, जय भवान, पब मणयः, कहचावयोः संबन्धः । तरफटकपटचेष्टिताकर, पनपाटश्चर'२, अणकपणिक'३ सालमपटल प्रतीसप्रस्व ४यिकनीलमति विलमेवं मामकाण्ई घणकर्मन्पर्यनुमुनाना" कर्म न सजसे ।' पुनाचनमर्थप्रार्थनपथमनोरयविशालं शबालं" बसामालिन्द"मन्दिरमनुचरंरानाम्यानार्यमति:१९. 'वैव, अयं वणिग्निष्कारणमस्माकं दुरपयाय मृदङ्गवन्मुलरमुखः सुखेनानस्तितस्तानक:० इयासित न ददाति' इत्याविभक्तिरयाप्तप्रसरसयोसजित राजहृदयस्तव पृथियोनायेनापि निराकारयत् । 'अच्छी तरह से प्रयोग किये हुए छल से ब्रह्मा भी ठगाया जाता है और यदि [ ठगने योग्य ] दूसरे मनुष्य में पूर्व अवस्था का लोप हो गया है, अर्थात्-विशेष परिवर्तन हो गया है, तब तो विचार करने की बात ही क्या है ? अर्थात्---उसे ठगना सुलभ है' ॥ १०५ ।। _ विशेष तरुणा से व्याप्त चित्त बाले श्रीभूति ने शोकाकुल वणिक-पुत्र से कहा-'अरे दुराग्रही भील ! क्या तू यहां पर किसी पिशाच द्वारा निस्सन्देह छला गया है ? या मानसिक तृष्णा को उत्पन्न करने वाले आग्रह वाली किसी मोहन भापधि द्वारा तु आक्रान्त झा है ? अथवा जुआ खेलने में तेरी समस्त चित्तवृत्ति हराई गई है? अथवा आश्चर्य है कि या दूसरों के चित्त को धोखा देने में पिनाचिनी-सरीखी किसी दासी द्वारा तेरे में खोटो प्रवृत्ति उत्पन्न की गई है ? अथवा-जिस प्रकार फलशाली वृक्ष पर किया हुआ लकड़ी का प्रहार, विना फल गिराये विश्राम नहीं लेता उसी प्रकार धनाढ्य के कार किसी दृष्ट पुरुष के द्वारा किया हुआ प्रहार भी विना धन-आदि प्राप्त किए विश्राम नहीं लेता, ऐसा सोचकर किसी दुर्बुद्धि मे तेरी बुद्धि ठगी है ? जिससे तू उल्टे वचन बकता है; क्योंकि कहां मैं, कहाँ तू, कहाँ रत्न और कहाँ मेरा व आपका संबंध ? अतः कूट कपट-र्णपू चेष्टाओं की खानि, नगरचोर, निन्ध व उग्र कर्म बाले वणिक ! समस्त देश में विश्वसनीय प्रकृति वाले मुझसे असमय में विशेषरूप से पूछता हुआ तू लज्जित क्यों नहीं होता? इसके उपरान्त दुर्बुद्धि श्रीभूति धन की प्रार्थना के मार्ग-युक्त महान मनोरथ वाले और वाचाल इस भद्रमित्र' वणिक-पुत्र को जबर्दस्ती तेवकों द्वारा राजमहल में ले गया और राजा से बोला-'देव ! यह वणिक, जिसका मुख अकारण मेरी अपकीति करने के लिए मदन जैसा वाचाल हो रहा है और जो विना नाथ के बैल जैसा मुझे सुख से बेठने नहीं देता।' इत्यादि बातों द्वारा नम्रता प्राप्त करने से श्रीभूति ने राजा का हृदय १. ब्रह्मा । २. विचारः । ३. परनर । ४. संगनं लोपः । ५. तृष्णा। ६. प्राप्तशोचं । ७. 'दुरावाहिन्' टि. ख. पं० तु 'दुष्ट दुराग्रही'। ८. दास्या। ९. वृक्षस्य चालन खस्ने रणं । १०. उद्यमः प्रकट कलक्षणः । ११. वदसि । १२. रे पत्तनचौर ! । १३. निन्धणिक ।। *. देश । १४. 'विश्वासस्वभाव' टि० ख०, पछिकायां सु 'प्रत्यमिको विश्वास्यः'। १५. गाढं अतीव । १३. पृच्छन् । १७. वाचाल । १८. राजमन्दिरं । १९. असभ्यः । २०. नायरहितवृषभवात् । २१, कोपित । २२. निर्द्धाटने कारयामास टि० , निर्षाटयामास टि च ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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