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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्यै भासिनः पारसनाथ कुलक्रमायाताखिलकमलानिलयमनन्यसामान्यसाहु सालयमेव मोविषणानिधिरपर इमापायजलकि नंगर मध्येऽपि मोषितुमभिलषति' इति जाता 'सर्वोत्कर्ष स्तं "म्यासापणेऽतिचिक्कपचितं निश्चिस्य स्वाध्यायिपरिषवि महापरिषद ज तदस्याथोपन्यासविन्यासेन साध्यसिद्धिमनवखानयनमोः" १० अाशुकमतिर्महादेवोध मनेम "निवेशम ग्लि "कामो कशिखा देशमा रुह्याद्गुह्यः विरहावसरः कुरर इव समस्थिमी प्रथम पश्चिमयामसमये "सुहृच्च राहूतिः श्रीभूतिरेवंविधक रण्डविन्यस्तम्: इयत्संस्थानसमम् एतवर्णम् अधः संस्याम्यणं च मदीयं मणिगणमुपनिधि निषेयं न प्रतिवदातीत्यत्रास्यंष धर्मरमणी साक्षिणी वयवि यवतयैतन्यथा मनागपि भवति तवा में चित्रवषो विधातव्यः । , ३३० इति दीर्घघोषपूणित मूर्ध्वमध्य मूर्ध्वबाहुः सर्वसुं परिवर्ताद्धं पूतकुर्वन्नेकदा नगराङ्गमाननस्य " चखाभृतपा त्रयन्त्रधारागृहाषगागोरितजगत्त्रयं कौमुदीमहोत्सव समयमा लोकमानया तमङ्गोत्सङ्गमा सोनया" निपुणिकाभिधानोकुपित कर दिया, जिससे राजा ने भी उसे निकलवा दिया । तब भद्रमित्र ने विचार किया- 'निस्सन्देह यह आश्चर्य की बात है कि चोरी करने को बुद्धि का निधि यह श्रीभूति, जो ऐसा मालूम पड़ता है मानों - मेरा धन नष्ट करनेवाला दूसरा समुद्र ही है - दूसरों को अगने के निमित्त से वंशपरम्परा से प्राप्त हुई समस्त लक्ष्मी के स्थानीभूत और असाधारण साहस के गृह मुझे भी नगर के मध्य में ठगने की इच्छा करता है । अतः उसे उत्कट क्रोध उत्पन्न हुआ । पदचात् उसने श्रीभूति को स्थापित धन के वापिस देने में विशेष लुब्धचित्तवाला अथवा पञ्जिकाकार के अभिप्राय से विचारशून्य निश्चय किया और जब उसने मठाधीश विद्वानों को सभा में और न्याय के चिन्तन में नियुक्त हुए धर्माधिकारियों की सभा ( न्यायालय में श्रीभूति के अन्याय ( धरोहर सम्पत्ति का अपहरण ) के स्थापन करने से अपनी प्रयोजन-सिद्धि ( सात रत्नों की प्राप्ति) नहीं समझो तब परवश बुद्धित्राला और स्थिर अस्थिर बुद्धि-युक्त हुआ वह महारानी के महल के समीप स्थित हुए इमली के वृक्ष की शिखर पर आरूढ़ होकर वैसा संकटग्रस्त हुआ जैसे पक्षिणों के वियोग के अवसर वाला पक्षी संकटग्रस्त होता है । इसके उपरान्त वह रात्रि के प्रथम व अन्तिम प्रहर की वेला में अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर अपना मध्यभाग ऊपर करने पूर्वक केचे स्वर से कम्पन पूर्वक जोर से चिल्लाता रहा- 'मेरा पूर्व का मित्र किन्तु अब शत्रु नाम वाला श्रीभूति, अमुक प्रकार के पिटारे में रक्खे हुए, अमुक आकारवाले, अमुक वर्णवाले, अमुक संख्यावाले मेरे रत्न समूह ( सात रन) नहीं देता, जिन्हें मैंने उसके पास स्थापनीय ( धरोहर के रूप में ) रूप से स्थापित किये थे । इस विषय में इसकी धर्मपत्नी ही साक्षी है । यदि मेरा यह कथन असम्बद्ध प्रलाप से जरा भी झूठ हो तो मेरा गूढ़ वध कर देना चाहिए।' इस प्रकार वह छह माह तक चिल्लाता रहा । इसके पश्चात् एक समय ऐसी रामदत्ता रानी ने इसका चिल्लाना सुनकर करुण अभिप्राय से इसे । ते १. परवचननिमित्तं मामपि मोचितुमभिलषति । २. चौर्य । ३. द्वितीयः । ४. क्रोव । ५. स्थापितधनदाने । ६. लोभिष्टं । 'चिक्कणः अपरिच्छेदकः इति पं० ७. स्वाप्यायिम ठिका प्रतिबद्ध समूहै । ८. न्यायचिन्तनाधिकारसमूहेधर्माधिकारे । ९. परवशबुद्धिः । १०. अशा स्थिरास्थिरा । ११. समीपं । १२. विचिणीवृक्ष । १३. पक्षिणी । १४. रात्रिः । १५. पूर्व सुहृदिदानीं शत्रुरिति नाम । १६. स्वापनीयं धनं स्थाप्यं । १७. असम्वबुधप्रलापतया । १८. षण्मासान् यावत् । १९. चन्द्र एव अमृतपात्रं तदेव मन्त्रधारागृहं । किरणामृतासारावग्राह्गोरितजगत्त्रयम्" इति क० २० उपरितनभूमिस्थितया रामदत्तया । शिशिरकर
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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