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________________ ३५२ यशस्तिलकचम्पूकाध्ये गोसवे सुरभि हत्याराजसूये तु भुजम् । अश्वमेघ हयं हन्याल्पोजराक हुदन्तिनम् ।। १३१॥ *औषण्यः पशवो वक्षास्तियनः एक्षिणो नराः । पज्ञाय निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्स्युभिता गतिम् ॥१३२॥ मानव क्यासबासिष्ठं वचनं वैवसंयुतम् । अप्रमाणं तु यो यात्स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥ १३३॥ 'पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकिस्सिसम् । आमासिवानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ।। १३४ ।। इत्यायादिति । मनु-मरोचि-मतमान मृतयश्व सवषट्कारमजद्विजगजवाजिनभूतीन्वेहिनो जुह्वति । तदेवं अतिशस्त्रवाणिज्यजित्यो पजीविनामीती: पर्वतो ध्यपोहति । कालासुरः पुनरालम्पमानान्प्राणिनः साक्षादिमाना. स्वान्स्वर्ग "सांबर्या पर्यटतो वयति । मनुप्रमुखाइच मुनयः प्रभावयन्ति । ततो मायाप्रचशितत्रिवशप्रेमप्रवेशाविलोभे संजरते सकलजनक्षोभेस प्रत्यासन्ननरकनगरः सगरः सच वनविभ्रमोचितस्थितिविश्वतिस्त"पवेशातीस्तान सत्वान् हस्वा सास्वा च दुरन्तरितोचितधेतसो ममिषाकालासुरेण स्मारितपूर्वभवागसौ13 बीतिहोत्राहुति हैं, ऐसी आज्ञा है ।। १२९ ॥ श्रोत्रिय ( यज्ञ करनेवाल वेदपाठी विद्वान् ) के लिए बड़ा वेल अथवा बड़ा बकरा मारा जाता है । पुष्य-माला व सुगन्धि-युक्त उक्त विधि स्वर्ग-सुख के लिए निरूपण की गई है ।। १३० ।। गोसव यज्ञ में तत्काल प्रसव करनेवाली गाय का वध करना चाहिए । रायसूय यज्ञ में राजा का वध करना चाहिए। अश्वमेघ में घोड़े का वध करना चाहिए और पीण्डरीक यज्ञ में हाथी का वध करना चाहिए ॥ १३१ ।। औपधियां, पशु, वृक्ष, तिर्यञ्च, पक्षी और मनुष्य यज्ञ में मारे जाने से उच्चगति प्राप्त करते हैं ॥ १३२ ।। मनु का धर्म शास्त्र ( मनुस्मृति-आदि ) और व्यास व वशिष्ट का शास्त्र ( महाभारत-आदि) एवं वैदिक वचनों को जो अप्रमाण बतलाता है, वह ब्रह्मघाती है ।। १३३ ।। पुराण, मानवधर्म, छह अङ्गों { शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द व ज्योतिष ) समेत चारों वेद और आयुर्वेद ये चारों स्वयं प्रमाण हैं, इन्हें युक्तियों से खण्डित नहीं करना चाहिए ॥ १३४ ।। पर्वत इस तरह की आज्ञा देता था और मन, मरीचि और मतल-आदि ऋषि स्वाहा शब्द के साथ बकरा, द्विज, हाथी और घोड़ा वगैरह प्राणियों का होम करते थे। इस प्रकार बंद से जीविका करनेवाले ब्राह्मणों में, वास्त्रजीवी क्षत्रियों में, व्यापार से जीविका करनेवाले चैश्यों में, कृषि से जोविका करनेवाले कृषकों में कालासुर ने जो ईतियाँ ( सर्प-कण्टक-आदि के दुःख ) फेलाई थीं, उन्हें पर्वत दूर करता था और कालासुर मारे गए प्राणियों को अपनी माया के द्वारा विमान में सवार कराकर स्वर्ग को जाते हुए प्रत्यक्ष दिखाता था। मनु-वगैरह ऋषि इसमें दूसरों को प्रभावित करते थे। इस प्रकार जब' समस्त नागरिक जनों में ऐसा क्षोभ हो गया, जिसमें माया द्वारा दिखलाये गये स्वर्ग-प्रदेश के गमन-आदि का लोभ था। तब समोपवर्ती नरक आवास बालं समर राजा ने और उस नरक के विलास के योग्य स्थितिबंध करने वाले विश्वभूति ने कालासुर के उपदेश से बहुत से प्राणियों का घात करके भक्षण किया, जिससे उन दोनों के चित्त महाभयानक पाप का संचय करने वाले हुए फिर कालासुर ने उन दोनों को पूर्वजन्म संबंधी सुलसा राजकुमारी के अपहरण का दोष --- *. 'मओपथ्यः ''पक्षिणस्तया । "प्राप्नुयन्त्युत्मृतीः पुनः ॥४०॥'- मनुस्मृति अ०५।। १. मनुस्मृत्ति १२, ११० । २. स्वाहासहितं । ३-५. श्रुतिजीविना श्राहाणानां, शस्त्रजीविना क्षत्रियाणां या ईतयः कालासुरेण मायया नाः ताः पर्वतः कालामुरमायया स्फेटयति । कृषिः। ६. हिस्पमानान् । ७, मायया । ८. प्रभावनां कुर्वन्ति । ९. समीपनरकावासः । १०, कालासुरोपदेशात्। ११. प्राणिनः । १२. प्लावित्वा । १३. सुलसापहारदोषो । १४, अग्निः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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