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________________ ३४१ सप्तम आश्वासः प्रकोपानलः कालेन 'विपथोत्पथ चासुरेषु कालासुरमामा भवप्रत्ययमाहात्म्यादुपजातश्वधिसनिधिस्तपस्याप्रम मसुरान्वं चात्मनो विनिश्चित्य यवीदानीमेव महापराधनगरं सगरम कारणप्रकाशितवोषजाति विश्वभूति च पिन, सदानयोः सुकृतभूयिष्ठत्वात् प्रेत्यापि सुरश्रेष्ठत्वावाप्तिरिति न साध्वपराधः स्यात् । ततो यथेहानयो विडम्वनायरोशे वषः परत्र च दुःखपरम्परानुरोधो भवति, तथा विषेयम् । न चैकस्य बृहस्पतेर्सम कार्यसिद्धिरस्ति' इत्यभिप्रायेणात्मवैकारिक 'द्विप्रदर्शनातिथि" वर निर्यातन मनोरथ रथसारथिमश्वेषमाणमतिरासीत् । S अय कामकोदण्डकारण कान्ता रेरिवेक्षुवणावतारैविराजितमण्डलाय ० डहालायामस्ति स्वस्तिमती नाम पुरी । तस्यामभिचन्द्रापरनामसु ' 'विश्वावसुर्नाम नृपतिः । तस्य निखिलगुणमणिप्रसूति वसुमती वसुमती नामाश्रमहिषी । नुनयो: समस्त सपत्म भूरुह विभाषसु '४ वंसुः । पुरोहितश्व निश्चिताशेषशास्त्रहरुपनिकुरम्यः क्षीरकदम्बः । कुटुम्बिनी पुनरस्य सतीव्रतोपास्तिमती स्वस्तिमतो नाम । १५ अभ्युनयोरनेकन मसित 'पर्वतप्राप्तः पर्वतो नाम । स १३ करने के कारण यह बेचारा तपस्वी हो गया है !' उस तपस्वी ने एकाग्रचित्त होते हुए निकटवर्ती अमङ्गल समूहवाले विश्वभूति के वचन सुनकर उसको क्रोधाग्नि भड़क उठी । वह आयु के अन्त में मर कर असुरकुमार जाति के देवों में कलासुर नामका देव हो गया। वही पर देव पर्याय के माहात्म्य से उसे भवप्रत्यय अवविज्ञान की समोपता उत्पन्न हुई। उसके द्वारा उसने अपनी तपश्चर्या का विस्तार व उससे असुर कुमार जाति के देवों में अपनी उत्पत्ति का निश्चय किया । R इसके उपरान्त उसने सोचा कि 'यदि मैं इसी समय महान् अपराध के स्थान सगर को व निष्कारण मेरे गैरमौजूद दोष-समूह को प्रकाशित करने वाले है तब पुण्य अधिक होने से इन दोनों को देवों की श्रेष्ठ पर्याय हो मिलेंगी, जिससे इनका विशेष अपकार नहीं होगा ।' इसलिए ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि इनका वध महान् कष्टों के संबंध वाला हो और परलोक में भी इन्हें दुःख-परम्परा का संबंध हो । परन्तु अकेला वृहस्पति भी सहायकों के बिना कार्य सिद्धि में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसा सोचकर उसकी बुद्धि ऐसे कुशल पुरुष की खोज करने में तत्पर हुई, जो इसको कि ऋद्धि के चमत्कार दिखलाने का अतिथि हो एवं जो वैरशुद्धि के मनोरय रूप रथ का सारथि हो । अर्थात् रोधने में सहायक हो । इक्षु बनों की उत्पत्ति द्वारा, जो मानों— कामदेव के धनुष उत्पन्न करनेवाले वन ही हैं. सुशोभित विस्तार वाले उहाला देश में स्वस्तिमती नामको नगरी है। उसमें विश्वावसु नामका राजा राज्य करता था, उसका दूसरा नाम अभिचन्द्र भी था। उसकी समस्त गुणरूप मणियों को उत्पत्ति के लिए वसुमति ( पृथ्वी ) सरीखी 'सुमति' नामकी पट्टरानी थी। इनके समस्त घत्रुरूपी वृक्षों को भस्म करने के लिए अग्नि जैसा वसु नामक पुत्र था। समस्त शास्त्र के रहस्य समूह को निश्चय करने वाला 'क्षीरकदम्ब' राजपुरोहित था । इसको पातिव्रत्य धर्म की उपासना करनेवाली स्वस्तिमती नामकी प्रिया थो। इनके पर्वत नामक पुत्र था, जो कि बहुल नैवेद्य चढ़ाकर की हुई देवताओं को आराधनाओं से प्राप्त हुआ था । १. मूत्वा । २. विस्तारं । ३. उद्भवं उपनि। ४. नृपमन्त्रिणः । ५. मृत्वापि । ६. विकारे शत्रा विक्रिपद्धि । ७. प्राणिक, मम विक्रियां नस्य दर्शयामीति मावः । ८. राद्धिकरणसामं । ५. अकवालायां विस्तारायां । १०. नाम देशे । ११. अभिनन्दः विश्वावसुः इति तस्य नृपस्य नामयं । १२. उत्पत्ती भूमिः । १३ १४. पत्रुवृक्षवहनाग्निः । १५. पुत्रः । १६. इन्तकारी एवं पर्वताः तेः प्राप्तः बहुलनैवेद्येन देवाराधनः प्राप्त इत्यर्थः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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