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________________ काव्ये ear मधुपिङ्गलः 'धिगिदम भोगायतनं' भोगायतनं यदेकदेशदोषादिमामुचितसमागमामपि "मामतनुमुहामहं नासि इति मत्वा विमुक्तसंसारपक्षः परिगृहीतवोक्षः क्रमेण तांस्तान्पासाराम निवेशाभिरनुको " जङ्घाकरिक इव लोचनोत्सवतां नयन्न शनाय ।" बुद्ध योध्यामा गत्याने कोपवासपरवश हृदयो साहस्तीव तपोऽतिथ हो वाष्प इव पोहाय सगरामारद्वार*मविदे" मनाग्ययस्व । तत्र च पुराप्रयुक्तपरिणयापश्यनीतिविश्वभूतिः प्रगल्भमतये शिवभूतये हविष्याय १ शिष्याथ रहित रहस्य मुद्रकं सामुदकमशेषवि पविचक्षणो व्यावक्षाणों वभूव । परामर्शयशाशीतिः १४ शिवभूतिस्तं न्यक्षलक्षणपेशलं मधुपिङ्गलमवलोक्य 'उपाध्याय, घनघूताहुति वृद्धिमद्धा मशालिनि "अवालामालिनि 'ह्यतामेव तिह्य स्वाध्यायो यदेवंविधमूर्तिरप्ययमीदृगवस्था कोतिः सदाचारनिगृहीतिविश्वभूतिः -- र्याप्त पूर्वापरसंगी शिवभूते, मा गाः वेदम्, थवेष नृपवरस्य सगरस्य निर्देशादस्मदुपदेशा व नन्यसामान्यलावण्यविनिवासां सुलसा मलभमानस्तपस्वी तपस्वी समभूत् । एतच्चासनारिष्ट तातेविश्वभूतेषंचनमेकायनमनाः १२ :--अप स प्रतिनिशम्य इस प्रकार उपासकाध्ययन में सुलगा का सगर के साथ संगम नाम का अढाईसव कल्प समाप्त ३४० 59 हुआ इस घटना से मधुपिङ्गल के हृदय में वैराग्य रूप कन्द ॐग गया और ऐसा सोचकर उसने संसार से मोह छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण कर लो। 'भोग-शून्य स्थान वाले इस शरीर को चित्रकार है, जिसके एकदेश (नेत्र) में दोष होने के कारण में समागम के योग्य ( अनोखी सुन्दरी ) मामा की पुत्री को नहीं प्राप्त कर सका ।' इसके उपरान्त एकाकी पादचारी की तरह घुमते हुए उसने क्रम से अनेक ग्रामों व बगीचों के स्थान नेत्रों की उत्सवता में प्राप्त किये। एक दिन वह भोजन की इच्छा की बुद्धि से आहार के लिए अयोध्या नगरी में आया । अनेक उपवास करने के कारण उसके हृदय का उत्साह पराधीन ( बेकाबू ) हो गया और तीन धूप से उसका शरीर विशेष थक गया था, अतः चातक पक्षी की तरह थकावट दूर करने के लिए सगर राजा के महल द्वार-मण्डप पर थोड़ी देर के लिए ठहर गया । वहाँ पर समस्त विद्वानों में प्रवीण विश्वभूति, जिसने पूर्व में इसका मुलसा राजकुमारी के साथ होनेवाले विवाह संबंध को छुड़ाने की कूटनीति का प्रयोग किया था, प्रतिभाशाली, बुद्धिमान एवं शास्त्रोपदेश के योग्य ( अथवा टि० के अभिप्राय से प्रेमपात्र ) शिवभूति नामक विष्य के लिए गोप्य-रहित मुद्रापूर्वक ( खुले तौर पर ) सामुद्रिक विद्या का व्याख्यान दे रहा था, उस समय विचार के अधीन चित्तवाले शिवभूति शिष्य ने समस्त लक्षणों से मनोज्ञ मधुपिङ्गल को देखकर अपने गुरु से कहा- उपाध्याय ! प्रचुर घी की आहूति से वृद्धिगत तेजवाला - वैधकती हुए अग्नि में इस सामुद्रिक विद्या को जला देनी चाहिए क्योंकि इस प्रकार के लक्षणों से युक्त होने पर भी इस मानव की ऐसी शोचनीय अवस्था है ।' इसे सुनकर सदाचार के शत्रु विश्वभूति ने कहा - ' पूर्वापर संबंध को न जाननेवाले शिवभूति ! खेद मत करो, क्योंकि सगर राजा की आज्ञा से और हमारे कहने से अनोखे सौन्दर्य को आश्रय मुलसा को प्राप्त न * कन्द । १. मोगरहितं गृहं । २. शरीरं । ३. मालपुत्रीं । ४. न प्रातवान् । ५. असहायः एकाकी । ६. चरणचरः पादचारी । ७. आहारार्थ" टि० ख० 'बुभुक्षाया:' टि० च०, पं० तु अद्यना क्षुधा । ८. चातकः । ९. श्रमस्फेटमाय । * 'ढापरे' इति ० | १०. पदिरे - प्राङ्गण्ड टि०० पञ्जिकाकारस्तु 'मन्दिरं मण्डप : इत्याह । ११. 'वल्लभाय' टि० स० पं० तु रचिष्यः शास्त्रोपदेशयोग्यः । १२. गोप्य रहित । १३. विदुषं पण्डितः । १४. 'चित्त' टि० स०, गं० तु 'आशीतिः बाधायः । १५. यक्षः सर्वः | १६. हे उपाध्याय ! हे प्रगल्भ । दि० ख० । १७. अग्नी । १८. संबंध १९. दीन, पं० तु तपस्वी वर्पुटः । २० अमङ्गल । २१. एकाग्रचितः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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