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________________ " ४०८ यशस्तिलकचम्पूकाव्यै विज्ञानप्रमुखाः सन्ति "विमुचि न गुणाः किल यस्य यो याचि । तस्यैपुमानपि मं तत्र दाहाद्दहनः क इहापरोऽत्र ॥ १२३ ॥ “धरणीघरघरणिप्रभूति सृजति ननु निपगृहावि "गिरिशः करोति । चित्रं तथापि यत्तचांसि लोकेषु भवन्ति महायशांसि ॥ १२४॥ चार्वाक दर्शन-मीमांसा चार्वाक - गुरु वृहस्पति ज्ञान को पृथिवी, वायु, जल व अग्नि इन चार अचेतन ( जड़ ) भूतों का धर्म ( गुण ) कहता है, किन्तु उनसे विरुद्ध धर्मवाले, अर्थात् — अचेतन (जड़) पृथिवी आदि भूतों से विपरीत धर्म ( चैतन्यगुण) के स्थानवाले आत्मा का धर्म ( गुण ) नहीं मानता यह उसी बृहस्पति का ही पाप है । भावार्थ - चार्वाकदर्शन* को मान्यता है कि 'अब तक जियो तब तक सुखपूर्वक जीवन यापन करो क्योंकि संसार में कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं है। अभिप्राय यह है जब मृत्यु अवश्यम्भावी है तब तपश्चर्याआदि का क्लेश सहन व्यर्थ है। शरीर ही आत्मा हो क्योंकि उससे भिन्न आत्मद्रव्य को प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रतोति नहीं होती। इसलिये जब मरणकाल में शरीर ही भस्मीभूत हो गया। अतः इसका परलोक-गमन ( मरण) व जन्मान्तर प्राप्ति ( अन्य जन्म ) नहीं है । यह पृथिवी, जल, तेज व वायु इन चार भूतों की चार पदार्थ मानता है और जिस प्रकार महुआ, गुड़, व जल आदि पदार्थों से उत्पन्न हुई सुरा में मदशक्ति उत्पन्न होती है उसी प्रकार शरीराकार परिणत हुए पृथिवी आदि चार भूतों से चैतन्य ( ज्ञान ) शक्ति उत्पन्न होती है एवं शरीर के नष्ट हो जाने पर चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। विशेष यह कि हम नास्तिक दर्शन को विस्तृत मीमांसा पूर्व में ( आवास ४० ५१-५२ श्लोक ४५-४७ एवं आश्वास ५ पृ० १६३-१६५, श्लोक ११३१२६ तक ) कर चुके हैं ॥ १२२ ॥ वैशेषिक दर्शन की मुक्ति-मीमांसा जिस कणाद ऋषि (वैशेषिक दर्शनकार ) के सिद्धान्त में यह न्याय है कि "निश्चय से मुक्तजीव में विज्ञान (बुद्धि) व सुख-आदि गुण नहीं हैं, उसके यहाँ मुक्ति अवस्था में जीवतत्त्व सिद्ध नहीं होता क्योंकि जिस प्रकार लोक में उष्णता के विना अग्नि सिद्ध नहीं होती उसी प्रकार विज्ञान आदि गुणों के विना मुक्त अवस्था में जीव भी सिद्ध नहीं होता । क्योंकि गुणों के विना गुणवान् द्रव्य कैसे सिद्ध हो सकता है ? भावार्थ — वैशेषिक दर्शनका मुक्ति अवस्था में मुक्त जीव में बुद्धि व सुख-आदि विशेष गुणों का अत्यन्त अभाव मानते हैं । यह युक्ति संगत नहीं, क्योंकि ऐसा मानने से मुक्ति में जोब द्रव्य शून्य सिद्ध हो जाता है ॥ १२३ ॥ सृष्टिकर्तृत्व-मीमांसा जब महेश्वर पर्वत व पृथिवी आदि पदार्थों की सृष्टि करता है तब निश्चय से उसी शिव को घट व १. मुरुषो वे विज्ञानादयो गुणाः न वर्तते । २. यस्य दीवस्य कणादस्य याचि सिद्धान्तं --- नयो न्यायोऽस्ति । ३. जीवोऽपि नास्ति तस्मिन् मते, दाहादुष्णत्वं विना यथाऽग्निर्नास्ति तथा ज्ञानादिगुणान् विना आत्मापि नास्ति 1 ४. गिरिप्रभूति यदि वस्तु सुजति सहि घटादीनपि सूजति । ५ रुष्टः । ६. शैववचांसि वचनानि । *. तथा चोक्तम् - यावज्जीवं मुखं जीवेनास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य वहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ १ ॥ सर्वदर्शनसंग्रह ० २ से संकलित - सम्पादक 1. तथा कोकम् – अशेषविशेषगुणोच्छेदो मोक्ष इति वैशेषिकाः सर्वदर्शनसंग्रह ( उपोद्घात) १० ७८ से संकलित--- 1
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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