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________________ अष्टम आश्वासः पुषत्रयमवलासक्तमूति तस्मात्परस्तु' गतकायफीतिः । एवं सति नाय कयं हि सत्रमामाति हिताहितविषयमत्र ॥१२५॥ 'सोनं योऽभूवं मालवयसि निश्चिन्तक्षणिकमतं जहासि । "संतानोऽप्यत्र न *वासनापि यन्वयभावस्तेन नापि ॥१२६॥ 'चित्तं न विचार फमक्षजनितमखिलं *सविकल्प स्वाशपतित 'मुदितानि "वस्तु नैव स्पृशन्ति शाश्याः कथमारमहितान्युशन्ति ॥१२७॥ व गृह-आदि को सृष्टि करनी चाहिए, आश्चर्य है फिर भी उसके वचन ( वेदादि ) मनुष्य-समूह द्वारा विशेष कीर्तिशाली ( प्रामाणिक ) माने जात है। भावार्थ-जब सदाशिव पृथिवी-आदि को सृष्टि करता है तब बही घट व गृहादि को सृष्टि क्यों नहीं करता? और ऐसा होने से कुंभार व बढ़ई-आदि से क्या प्रयोजन रहेगा? इसको मीमांसा पूर्व में (आ० ५ पु० १६१ ) को जा चुकी है ॥ १२४ ।। वेद की ईश्वर कर्तृत्व-मान्यता की समीक्षा हे स्वामिन् ! श्री ब्रह्मा, विष्णु व महेश तो तिलोत्तमा, लक्ष्मी व गौरी में आसक्त हैं, जिसस रागादि दोषों से दूषित होने के कारण अप्रमाण है ) और उनसे भिन्न परमशिव शरीर-रहित है। ऐसी स्थिति में उस परमशिव से हिताहित के प्रदर्शक वैद की सृष्टि किस प्रकार हो सकती है ? ॥ १२५ ॥ बौद्धदर्शन-समीक्षा 'जो मैं बाल्यावस्था में था, वही मैं युवावस्था में हूँ मदि इस प्रकार एकत्व मानते हो तो हे बौद्ध ! तुम अपने क्षणिक सिद्धान्त का त्याग करते हो। उक्त दोषके निवारण के लिए वादो ( बौद्ध ) यह कहता है, कि यद्यपि क्षणिक आत्मादि वस्तु नष्ट हो जाती है, परन्तु उसको सन्तान या वासना बनी रहती है, जिससे उक्त बात संघटित हो जायगी। उक्त विषय पर विचार करते हैं, कि आपके यहाँ सन्तान या वासना भी घटित नहीं होती। अर्थात्---जो जीवक्षण प्रथम समयमें ही समूल नष्ट हो चुका, उससे अन्य जीवक्षण उत्पन्न नहीं हो सकता। जिस प्रकार आपके क्षणिकवाद में सन्तान नहीं है उसी प्रकार वासना ( संस्कार ) भी नहीं है। क्योंकि विद्यमान पदार्थ में सन्तान या वासना संघटित होती है, न कि सर्वथा समूलतल नष्ट हुए पदार्थों में । अत: आपका कथन विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि अनुक्रम से उत्पन्न होनेवाली पूर्वापर पर्यायोंमें व्यापक रूप से रहनेवाले आत्म द्रव्य संबंधी अन्वय के विना सन्तान या बासना नहीं बन सकती ।। १२६ ॥ बौद्ध के प्रमाणतत्व की मीमांसा :. आपका समस्त पांच प्रकार का इन्द्रिय-जनित निर्विकल्पफ ज्ञान विचारक नहीं है और इससे दूसरा १. परः परम एव शिवः । २. वायरहितः । ३. सोऽहं इति मन्यसे चेत्तहि क्षणिकमतं जहासिरे बौद्ध ।। ४. यो जीवः प्रथमसमये विध्वंसं प्राप्तः तस्माजीमादन्यो जीवो नोत्पद्यते । एवंविषः सन्ताननिषधोऽस्ति भवन्मने । * मवन्मते यथा सन्तानो नास्ति तथा वासनापि नास्ति तहि कथमुच्यते बासनया ज्ञानमुत्पद्यते स भवतः सर्वमसम्बद्धं । ५. अनुक्रमेणोत्पन्नेयु । पंजीवाजीव उत्पयते तहि तेन कारणेनास्मन्मतेऽपि आदमा विवर्तते । ६, अविकल्पं जाने। 'तन्त्र निर्विकल्पकमिव पविकल्पमपि न विचारफम्, पूर्वापरपरामर्दाशून्यत्वादमिलापसंसर्गरहितत्वात्। अष्टसहस्त्री पृ० १४ से संकलित-सम्पादक । *, निर्विकल्पं । ७. ससन्देहं पंचप्रकारं । ८. आत्मस्वरूपादि बर्तते । ९. योद्धोक्तानि । १०. जोवादि । ११. वदन्ति । ५२.
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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