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________________ १३९ पञ्चम आश्वासः कटिघटाकरादोपविलुण्ठित समस्त यस्य च निप्रतापसंपादितोत्सव भरायां विश्वंभरायामनन्यसामान्यमात्मंश्वयं मवलोकमानस्य रथचमूचचर्याभूणितनिःशेषशैलमूलेषु हयानीको कखरपुरोद्भूतधूलीपटलपूरितसकलपातालमूलेषु महाट योगनैषु सुभटसैन्य पोण्डवलितनिखिलस ालयलनेषु द्विषद्विषयेषु परं कात्यायनी प्रतिमास्वेव दुर्गःथमवतस्थे । एवं तस्याधिपतेः सप्तषापयोराशिरत्मालंकारपात्रं कुलकलत्रमिवावनिलयं निहालयतः १ यभावादेव यक्ष्यस्य धर्मामृतरसा स्थावदो हदविदूरितसंसारसुखोदयस्य 'समलकलश इवायं कायो बहिष्कृतयत्ननिणजनोऽपि न महाति निजां प्रकृतिम् अत्याधानकाष्ठमिव देहिनां भवदुः खपरपाताय विषयोपसेवन माधुर्यमिति विदन्तोऽपि कथमनया बहिः प्रवशितापातसुन्वराडम्बरवासानविरसया पांसुलयेव थिया प्रतार्यन्ते मुग्धबुद्धयः क्षोणीश्वरा ' इति परामर्शलयसाम्राज्यग्रहाभिनिवेशस्य प्रतिपुष्पमिव केवलं त्वथि मनोहरं कणिनीजनम् वितयतः 'फो नु खलु विश्वंभरे था। जो असमर्थों की साहसादेशविधि ( सहायता करने) में प्रताप ( सैनिक व कोशशक्ति) का अवलम्बन ( आश्रय-सहारा ) करता था, परन्तु अपने ऐश्वर्य ( राज्य विभूति ) की संभावना ( प्रसिद्धि ) में प्रताप ( प्रकृष्ट सन्ताप का प्रकाशन ) नहीं करता था । अर्थात् — किसी को सन्तापित नहीं करता था । जो मस्तक पर नमस्कार अञ्जलियों की आरोपण ( धारण ) करता था परन्तु धनुष पर डोरियों का बारोपण - स्थापन ( चढ़ाना ) नहीं करता था। जिस सुदत्त महाराज के, जो कि अपने प्रताप से प्राप्त किये हुए उत्सवों की अधिकता वाली पृथिवी पर अपनी अनोखी राज्यविभूति को देख रहा था, ऐसे शत्रुदेशों में, केवल कात्यायनी ( पार्वती - दुर्गा ) की मूर्तियों में ही दुर्ग ( दुर्गापन-पार्वतीपन ) स्थित था, परन्तु शत्रुदेशों में दुर्ग ( किले } नहीं थे । जिनमें ( शत्रुदेशों में ) रथ- सेना के पहियों के संचार से समस्त पर्वतों के मूल (नीचे के भाग ) चूरचूर किये गए हैं। जिनमें घोड़ों की सेनाओं को अत्यन्त तीक्षण टापों से उड़ी हुई धूलो समूह द्वारा समस्त पातालमूल ( अधोलोक के नीचे भाग ) पूरित ( व्याप्त ) किये गए हैं। जिनमें हाथियों के समूह की सूंडों के विस्तार से समस्त विशाल अटवियों के वृक्ष समूह उखाड़े गए हैं और जिनमें बीर सैनिकों के भुजारूपी दण्डों से समस्त प्राकारों ( कोटों) के घुमाव तोड़े गए है । प्रसङ्गानुवाद - अथानन्तर 'रत्नशिखण्ड' ने कहा है नवीन अपराधों के पात्र 'कन्दलविलास' विद्याधर । एक समय राजदरबार में स्थित हुए उस ऐसे कलिङ्ग देशाविपत्ति मुदत्त महाराज के समक्ष, जो सात समुद्ररूपी रत्नमयी करधोनी के पात्र पृथिवीमण्डल का वैसा प्रतिपालन कर रहा था जैसे रत्नाभरण - विभूषित कुलवधू प्रतिपालन की जाती है | स्वाभाविक दया से सरस हृदयवाले जिसने धर्मरूपी अमृत के रसास्वादन की उत्कट अभिलापा के कारण सांसारिक सुखों का उदय दूर कर दिया है। जिसका साम्राज्यरूपी ग्रहाभिनिवेश ( भूतपिशाच को लोनता ) निम्न प्रकार के उत्कृष्ट विचार से शिथिल हो गया है। 'यह शरीर सूथ (मल) से भरे हुए घटसरीखा है, जो कि बाह्य स्नानादि प्रयत्नों द्वारा प्रक्षालन किया हुआ भी अपना स्वभाव ( अपवित्रता ) नहीं छोड़ता । विषयों के भोग की मधुरता प्राणियों के ऊपर वैसी सांसारिक दुःखरूपी परशु के पादन ( गिराने ) के निमित्त है जैसे अधस्तनकाष्ठ ( लकड़ी के ऊपर रखी हुई लकड़ी ) परशु के पातन के निमित्त होता है। इस प्रकार जानते हुए भी मूढबुद्धिवाले राजा लोग व्यभिचारिणी स्त्री- सरीखी इस राज्यलक्ष्मी द्वारा, जिसने अनुभव काल में बाह्य मनोश आडम्बर प्रकट किये हैं और जो परिणाम ( उत्तरकाल ) में विरस ( दुःख देनेवाली ) है, किस प्रकार ठगाए जाते हैं ? , इसी प्रकार जो 'स्त्रीजन को सड़े हुए कूष्माण्डफल-सरीखा केवल त्वचा से मनोज्ञ प्रतीत होनेवाला' विचार रहा है एवं निम्न प्रकार के निर्दोष उपदेश से जिसका मोहरूपी जाल छिन्न भिन्न किया जा रहा है'समस्त विश्व का भरण-पोषण करनेवाले राजाओं में निश्चय से कौन ऐसा राजा है ? जो यमराज के नगर में ९. निलति विंडति ? मध्यादयः कर्षकाः खेटयन्ति तान् राजा प्रयुङ्क्ते — 'प्रतिपालयतः' इत्यर्थः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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