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________________ यशास्तलकचम्पूकाव्ये अपरमनासाधारणेष गुणमणिविभूषणेषु महानाग्रहः, न पुरितरेषु देहलेदावहेपलशमलनिकहेषु । निखिलजगामगलविधानाऽमनेषु' सञ्चरित्रेवभोवणं रक्षणप्रयत्नः, न पुनः जनसागारमानारगे' को यस्य च सप्तसमुद्रमेस्सलायनिविलोमनातकोतुकल्याभूषभिमुखीभाषः शश्रूणां प्राभूतेषु, न शस्त्राणाम् । विग्रहः। प्रतिषु, नापकारमनीषायाम् । द्विषाभावः सेवाफपटेष, नोपचारकार्याणाम् । पसनं भृत्यभावेष, न चामराणाम् । प्रसारणं सवल्यार्पणेगू, नातपत्त्राणाम् । प्रबन्धः कण्ठकुठारेषु, न भवविम्भितानाम् । 'प्रतापावलम्पनमसहायसाहसावेशविधिषु, नैश्वयंसंभावनायाम् । आरोपर्ण शिरसि प्रणामाजलिघु. न धनुषि मोागाम् । के हाथियों के पकड़ने के महान कौतूहल हैं, परन्तु चौर, गुप्तचर, पाश-समूह हैं आदि में जिसके ऐसे दुसरे उपाय प्रघट्टक द्वारा जिसे हाथियों के पकड़ने से महाच कौतुहल नहीं है । जिस सुदत्त महाराज का चित्त संसार पर्यन्त स्थिरतारूपी सुगन्धिवाले यशरूपी चन्दन के विलेपनों में अभिलाषा-युक्त है किन्तु विनश्वर सुगन्धि से गनोज्ञ संबंधचाले दूसरे सुगन्धि पदार्थों ( चन्दनादि ) में अभिलाषा-युक्त नहीं है। दूसरे मनुष्यों में न पाये जानेवाले ज्ञानादि गुणरूपी मणियों के आभूषणों में जिसे प्रगाढ अनुराग है किन्तु शरीर में खेद-जनक दूसरे पापाण-खण्डों ( रत्नादि ) के समूहों में प्रगाढ अनुराग नहीं है। समस्त लोक को आनन्दित करने के पात्र सदाचारों की निरन्तर रक्षा के लिए जिसकी चेष्टा है किन्तु समस्त प्राणियों में साधारण रूप से पाये जानेवाले प्राणों की रक्षार्थ जिसकी निरन्तर चेष्टा नहीं है । सातसमुद्र रूपी करधोनी वाली पृथिवी को देखने के उत्पन्न हए कूतहलवाले जिस सुदत्त महाराज को शत्रुभूत रामाओं के उपहारों के ग्रहण करने में सन्मुखता थी, न कि शस्त्रों के ग्रहण करने में । जो नमस्कारों के करने में विग्रह ( अभिमुखीभूत ) था, परन्तु अपकार करने को बुद्धि का विग्रह (विस्तार ) नहीं करता था। जो सेवा करने में कुटिल शत्रुओं के साथ विवाभाव ( शत्रुता ) करता था, परन्तु उपचार ( प्रजापालन-आदि व्यवहार ) कार्यों में द्विषाभाव (चितवृत्ति के दो खण्ड करना-अस्थिरता) नहीं करता था अथवा उपचार (सेवनीय) शरणागतों का द्विधाभाव' (बिनाश ) नहीं करता था। जिसके यहाँपर भृत्यभावों (मृत्यरूपी पदाथों-सेवकों ) में पतन (नम्रता) था परन्तु चमरों का पतन ( विनाश ) नहीं होता था । अर्थात्-निरन्तर चंदर ढोरे जाते थे। जिसका प्रसारण ( विस्तार गुण ) समस्त धनादि के अर्पण में था परन्तु जिसके छत्रों का प्रसारण (निर्गमनहटना नहीं था अर्थात्-सदा छत्रधारी था। जो अभिमानी पात्रुओं के मलों पर [उनका मद चूर-चूर करने के लिए ] कुछार का प्रबन्ध (प्रकृष्ट बन्धन) करता था परन्तु अहङ्कार के विस्तारों का प्रबन्ध (संबंध नहीं करता -- - -- - १. निखिल जगन्मङ्गलविधायिषु' इलि ह. लि. (क) प्रती पाठः । २. अमत्राणि माजनानि इति पत्रिकाकारः। ३. 'सर्वजनसाधारणेषु' इति ह. लि. ( क ) प्रती पाठः । ४. विग्रहोऽभिमनीमतः "विग्रहो युधि विस्तारे प्रविमागशरीरयोः । ५. शत्रणामिति भावः पक्षे हिस्टेडकरण । ६. सेवायां कुटिले । उपचारस्तु लञ्चायां व्यवहारोपयर्ययो । ५. प्रकृष्टबन्धनं दावणी मानत्यजने गले ठारस्य नाहकारस्म बंधनं । ८, बसमर्थानां साहाय्यकरणे। २. परिसंस्थालंकारः । अस्य लक्षणं तु एकत्र निषिध्यान्यत्र वस्तुस्थापन परिसंख्या ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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