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________________ पेष्ठ आश्वासः २१५ सुधरोपकले तपस्यतः कान्तारदेवताविहितसपर्यातरधर्माचार्यासुरसुन्दरीकटाक्षविपक्षो बोक्षामावाय विदितवेदितव्यमंत्र:बापः सन्नम्बरे 'तपत्यम्बरमणौ स्तम्बासम्बरितोपातपलाशिमालायामेतवचलमेखलायामातापनयोगस्थितोऽनवरतप्रवर्षमानाध्यात्मध्यानावग्ध्ययोनिरतः 'किमयं "करोत्कीर्णः, कि वास्मादेव पर्वतान्तिरूः' इति विताभ्यो बभूव । संजातसुहृत्समालोकनकामो विश्वानुलोमोऽपि तत्परिजनात्परिजातंतत्प्रन मनण्यतिकरः 'मित्र यस्य धन्वन्तरेपो गतिः सा ममापि' इति प्रतिज्ञाप्रवरस्तोगस्य जनजनसमयस्थितिमलवबुध्यमानः 'हहो मनोरहस्य वपस्य चिराम्मिलिसोऽसि । किमिति न में गाढामङ्क पाली बबासि. किमिति न काममा लापर्यास, किमिति न सादरं चालामापृथधसे । १. इत्यादि बहुशः दादाभाष्य निज नियमानुसाई तामममि निरागसि पन्धन्तरियतीश्वरे प्ररुष्य सविाशिषतात्तिः प्रादुर्भवतीतिर्भूतरमणीयपरणिधरसमीपसमुत्पावितोटजस्य सहस्र जटिनो निकटे शतजटोजनिष्ट । धन्वन्तरिरप्यातापनयोगान्ते तस्य संबोषनाय समन्ते १५ समुपसद्य 'मस्प्रणयपावित्रामाराम विश्वानुलोम, जिनपस्थितिमनवबुध्यमानः किमित्यकाण्डे बण्डभावमादाय दुराचारप्रधानः समभूः । सहि । विहा१"र्म दुःपपकथासनाधं समयावसमनीति विरुद्ध आचरण करने से निन्द्य या अपक्रोति से नष्ट प्राय हो जाता है ( बदनाम हो जाता है ) फिर उसी देश में धारण किया हुआ आचरण निरपवाद नहीं रहता ( निन्दित ही बना रहता है )--- अतः उक्त उपदेश देनेवाले आचार्य श्री को आज्ञा से इसने 'धरणिभूषग' नामके पर्वत-समीप में तपश्चर्या करने वाले और वन देवता द्वारा को हुई पूजा वाले श्वेष्ट धर्माचार्य से देवियों के कटाक्षों की प्रतिकूल ( मुक्तिश्रीदेनेवालो ) जैनेश्वरी दोक्षा धारण कर लो। पश्चात् आम्नाय की जानने योग्य सब बातों को जानकर धन्वन्तरि मुनि जब आकाश में मध्याह्न सूर्य सन्तप्त हो रहा था तब आकाश तट व्यापि वृक्ष श्रेणी वाली इस पहाड़ को मेखला पर आतपन योग ( ध्यान ) में स्थित हुए एवं निरन्तर वृद्धिंगत अध्यात्म ध्यान ( धर्म व मुक्लन्यान ) के प्रभाव से माल जानने योग्य सूक्ष्म तत्वों में लवलीन हुए, ऐसे निश्चल मालूम पड़ते थेमानों-क्या ये पर्वत्-शिखर पर उकारे गये हैं ? __ अथवा मानों-इसो पर्वत से निकले हुए हैं ? [इबर ] अपने मित्र के दर्शन की इच्छाचाले विश्वानुलोम ने भी, [ उसके गृह जाकर ] उसके कुटुम्बियों से अपने मित्र के दीक्षा लेने के समाचार जाने । पश्चात् उसने ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा को 'मेरे मित्र धन्वन्तरि को जो दशा हुई है, वह मेरो भी हो'। फिर वह धन्वन्तरि के पास आया और जैन साधुओं की आचार-मर्यादा को न जानता हुआ कहने लगा-हे मानसिक अभिप्राय के ज्ञाता मित्र ! बहुत दिनों के बाद मिले हो । अत: मेरे लिए गाढ़ालिंगन क्यों नहीं देते ? ओर मुझसे विशेष बातचीत को नहीं करते? एवं क्यों मुझसे आदरपूर्वक कुशल समाचार नहीं पूछते ?' इत्यादि अनेक बार विनयपूर्वक कहने पर भी जब धन्वन्तरि मुनि ने कुछ जवाब नहीं दिया तब वह अपने नियमानुष्ठान ( आत्मध्यान) में एकाग्रचित्त व निर्दोपो धन्वन्तरि मनीश्वर से विशेष रुष्ट होकर समीपवर्ती अकल्याण परम्परावाला और धन्वन्तरि यतोश्वरसे द्वेप करने वाला वह 'भूतरमणोन' पर्वत के समीप अपनो कुटी बनाने वाले 'सहस्रजट' नामके जटाधारी सन्यासी के निकट 'शतजट' नामका जटाधारी सन्यासी हो गया। आत्तपन योग के समाप्त होने पर 'धन्वन्तरि' मुनि भी उसके समीप समझाने गये । और उन्होंने कहा १. पुजा। २. आम्नायः उपवंशपरम्परः । ३, 'सनम्बरस्तम्बाम्बरत' क० च०। ४. आकाशतटच्यापिवृक्षश्रेणि । ५. पर्वतदन्त चाटी। ६. निरुटः निर्गतः । ७. मित्रस्यैव । ८. धन्वन्तरि-समीपे । ९. आलिङ्गनं । १०. अतिमायेन । ११. कुचलं । १२, एकार्य । १३. समोप-अकल्याणं । १४. उटजं तुणगृह, तृणगृहस्य पर्णशालोटजोऽस्त्रियां । १५. समीपे । १६, आगच्छ । १५. मक्त्वा । १८. समयः आश्रमः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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