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________________ २१६ यशस्तिलकधम्पूकाव्यै कृतप्रमत्मप्रकाशोऽपि मनोरथं सहैव सपस्यावः' इति षष्ठुदा शिक्षाशात मोतीतला 'भिय सुधामो को त चिलोट सेकं* तितज्ञपात्र इच तन्मनोऽप्राप्तसदुपदेापयोवस्थानः प्रतियोषयितुम शगुदपादमूलमनुशील्य कालेन प्रवचनोत्रि पर माचरणाधिकृतं विधि विषाय विदुषाङ्गनाजनो स्वार्यमाणमङ्गलपरम्परानल्पेऽयुतकल्पे समस्त सुरसमाजस्तूपमान महातपः परायणप्रतिभोऽमितप्रभो नाम शेषोऽभवत् । विश्वानुलोमोऽपि युरोपार्जितपुष्यवशाज्जीवितावसाने विषद्योत्पद्य व्यन्तरेषु गजानीकमध्ये विजयमाम-यस्य देवस्य विद्युतभाख्यया बानो बभूव । वुमरेकदा पुरंदरपुरःसरेण दिविजवृत्वेन सह नन्वीश्वरढीपात प्रत्यया याश्रयामष्टापक नियम सावमितप्रभो देवस्तं विद्युतप्रभमिममवेल्या ह्लाद मानमानसः प्रयुज्पावधिमयपूर्ववृत्तान्तः 'विद्युतप्रभ, किं स्मरति जन्मान्तरोवन्तम्' इयभाषत । विश्वतप्रभः 'अमितप्रभ, बाई स्मरामि । कि सफल चारित्राधिष्ठानावनुष्ठानान्ममेवंविधः कर्मविपाकानुरोधः । सव तु ब्रह्मचर्यवशात्कायक्लेश बीदृशः । ये च मको समये" जसवग्नि-मतङ्ग पिङ्गल कपिञ्जलादयो महर्षयस्ते तपोविशेषाविज्ञागत्य भवतोऽप्यभ्यधिका भविष्यन्ति । ततो न विस्मेतस्यम्' । अमिलप्रभः - विद्युत्प्रभ, संघस्यपि न मुञ्चसि दुराग्रहम् । तदेहि । तव मम च लोकस्य परीक्षा + 'मेरे प्रेमरूपी पथिक के विश्राम के लिये उद्यान सरीखे हे विश्वानुलोम ! जैन धर्म की मर्यादा को न जानकर असमय में कुपित होकर क्यों कुमार्गगामी हो गये हो? इससे आइये और कुमागं की कथा वाले दस तापसाश्रम में निवास करने का मनोरथ छोड़कर साथ ही तपश्चर्या करेंगे।' इस प्रकार धन्वन्तरि ने बार-बार विलोम को समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु वह ऐसे विश्वानुलोम का कुशिक्षा के कारण जिसके चित्त का प्रकर्ष झूठे मान से हुई मूकता से विशेष कल्लोलित हुआ है, जैसे बिलाव के बच्चे के शब्द से डरा हुआ पक्षि- शावक झूला मौन धारण करता है | सन्मार्ग पर लाने में असमर्थ हुए, क्योंकि ये चलनी जैसे उसके मनरूपी पात्र में अपना सदुपदेशरूपी दूध स्थापित न कर सके । तब धन्वन्तरि गुरु के पादमूल प्राप्त हुये और समय आने पर बागमानुसार विधिपूर्वक सन्यास मरण करके देत्रियों द्वारा उच्चारण की जाने वाली मंगल परम्परा से श्रेष्ठ 'अच्युत' नामके सोलहवें स्वर्ग में, ऐसे 'अमितप्रभ' नामके देव' हुये, जिनकी महान् तप में तत्र प्रतिभा समस्त देव समूह द्वारा स्तुति की जानेवाली है । 'विश्वानुलोम' भी आयुष्य के अन्त में मरकर पूर्व में संचय किये हुए पूण्य से विजय नामक व्यन्तर को गजसेना' में 'विद्युतप्रभ' नामका वाहन जाति का देव हुआ । पुनः [ एक बार जब अष्टाह्निका पर्व में अमितप्रभ' देव, इन्द्रकी प्रधानता वाले देव -समूह के साथ 'नन्दीश्वर' द्वीप से वहां के चैत्यालयों को अष्टाह्निका पर्व संबंधी पूजा करके वापिस आ रहा था, तब अपने पूर्वजन्म के मित्र 'विद्युतप्रभ' नामके वाहन को देखकर प्रसन्नचित्त हुआ और अवधिज्ञान से पूर्व जन्म का वृत्तान्त जानकर कहा - 'विद्युतम ! क्या पूर्वभव का वृत्तान्त याद है ?" 'विद्युतप्रभ ने कहा- 'अमितप्रभ ! हां, खूब याद है । किन्तु पूर्वजन्म में सपत्नीक चारित्र के पालन से मेरा कर्मदय का आक्षेप ऐसा हुआ और ब्रह्मचर्य के कारण कायक्लेश उठाने से तेरा कर्मोदय का आग्रह ऐसा हुआ । और जो मेरे शासन में 'जमदग्नि-मतङ्ग पिङ्गल व कपिञ्जल आदि महने हुए हैं, वे विशेष तपश्चर्या के प्रभाव से यहां आकर मापसे भी बड़े देव होंगे। अतः आपको आयचर्य नहीं करना चाहिए ।' १. विश्वानुलोम 1 २. ओतुः पारः । ३. डिम्भं । ४. कल्लोलित | ५. प्रकर्षं । ६. तितङः बालनि चालनि: ७. अमत्रं पात्रं चित्तभाजने । ८. सन्मास । ९. तत्परः । १०. आग्रहः आक्षेपः । ११. मस तितखः पुमान् । शासने 1
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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