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________________ पष्ट आश्वासः पहे चित्तम्' इति विहितविवारी तो शायपि यो करहाटदेशस्य पश्चिमविभागमाश्रित्य काश्यपीतलमषतेरतुः। तत्र १ बनेचरसन्यसोजन्याशून्ये भिकटवण्डकारण्यवने समित्कुश कुशाशयंप्रकामे बदरिकाश्रमे बालकालकृतकच्द्रतपस चन्द्रचण्ड मरीचिचिपानपरायणमनसपूर्वबाहुमेकपाबाषस्थानाग हराहममल्पोल्लसरपल्लवाविरलवल्लीगुल्मवस्मोकावरुद्धवपुषमतिप्रवद्धतासुषाधवलितशिरःश्मश्रुजटरजालस्विषमृषेः कश्यपस्य शियं जमदग्निम वलोक्य पत्ररथमिथुनकयोचिताश्लेयं बेषं विरचय तस्कूचकुला, कुटीरकोटरे निविष्टो 'कान्ते, फाञ्चनाइलमूल मेखलायामशेषशकुन्तधकचक्रवतिनो वैनतेयस्य वात राजमुतया मदनकन्वलोनामपया सह महान्विवाहोत्सवो वर्तते । तत्र भयावश्यं गन्तव्यम् । त्वं तु सखि, समासनप्रसवसमया सतो सह न शक्यसे नेतुम्" । अहं पुनस्सद्विवाहोसवामन्तरमकालशेपमामामयामि। पंपा का स यथास्ये तमा मातुः पितुश्चोपरि महान्तः शपयाः । कि बहनोक्तंन । यद्यहमन्यथा बमामि तदास्य पापफर्मणस्तपस्विनो बुरितभागी स्याम्" इत्यालापं चक्रतुः । तं च जमदग्निा तब 'अमितप्रभ' ने कहा-'विद्युतप्रभ ! अब भी तुम अपना दुराग्रह नहीं छोड़ते हो तो आओ हम दोनों अपने-आपने धर्मारमा-लोक के चित्त को परीक्षा करें।' ऐसा पारस्परिक विवाद करने वाले वे दोनों देव 'करहाट' देश को पश्चिम दिशा में प्राप्त होकर इस पृथिवी तल पर अवतीर्ण हुए। वहाँ पर उन्होंने भीलों को सेना के युद्ध से सहित और उस देश को पश्चिम दिशा के निकटवर्ती 'दण्डकारण्य' नामके वन में स्थित हुए एवं ईंधन, दर्भ व जलाशय को प्रचुरता वाले 'बदरिकाश्रम' में बहुत काल से कठोर तपश्चर्या करने वाले ऐसे 'जमदगि नाम के तपस्वो को देखा, जो कि 'कश्यप ऋपि के शिष्य थे। जिसका मन चन्द्र व सूर्य की किरणों के पान करने में सत्पर था। जिसकी दोनों भुजाएँ कपर उठी हुई थौं । जो एक पाद ( पैर व पक्षान्तर में किरण ) से खड़े होने के आग्रह में वैसे थे जैसे राहु चन्द्रसूर्य को एकपाद (किरण या चतुर्थाश )-युक्त करने के आग्रह वाला होता है। जिसका शरीर बहुत से शोभायमान पल्लवों, धनी लताओं, वहूतलम्बी बेलों एवं वामियों से आच्छादित ( ढका हुआ) था और जिसके शिर व दाढ़ी के जटा-समूह की कान्ति विशेष बढ़ी हुई वृद्धावस्था रूपी सुधा ( चूने ) से शुम्र होगई थी। इसके पश्चात् उन दोनों देवों ने [विक्रिया से ] पक्षियों के जोड़े के वृत्तान्त-योग्य संबंधवाला वेष {रूप ) धारण किया और उस तपस्वी को दाढीस्पो घोंसले की झोपड़ी की कोटर में घुस गए । एक दिन पक्षी ने अपनी प्रिया से कहा-'प्रिये ! सुमेरु पर्वत की मूलभेखला में समस्त पक्षि-समूह के चक्रवर्ती गरुड़राज का 'मदनकन्दली' नाम को दातराज ( पक्षी-विशेष ) की पुत्री के साथ महान् विवाहोत्सव हो रहा है, उसमें मुझे अवश्य जाना है। प्रिये ! तुम्हारा प्रसत्रकाल नजदीक है, अतः तुम्हें ऐसे समय में साए ले जाना शक्य नहीं है । उक्त बिबाहोत्सव के बाद मैं शीन लोट आऊँगा। वहाँ पर मैं बहुत समय तक नहीं ठहरूमा, यदि ठहरू तो मैं अपने मां-बाप की शपथ करता हूँ। अधिक क्या कहूँ, यदि मैं झूठ बोल तो इस पापी तपस्वी के पाप का भागी होऊंगा।' इस प्रकार उन दोनों पक्षियों ने परस्पर वार्तालाप किया। १. पश्चिमभाम। २. इंधन। ३. दर्भ। ४. कुशाशयः जलाशयः। ५. 'समिस्कुजकुश (का) । ६. बोरक्ष स्पाने । ७. सूर्य । ८. पत्ररथः पक्षी, पक्षिचटकः 1 ९. मालक । १०. वातराजः पक्षिविशेषः महाँलकः। ११. मया । १२. अहं भवामि । २८
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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