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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निमित्तम्' इति प्रस्ताबापातमाघार्पोक्सिमुपभुत्य, प्रणिपत्य व 'ययेवं पूरेः तहि भगवन्, अयमपि जनोऽनुगृह्यतां कस्यापि अतस्य प्रदानेन' इस्मयोवत् । तदनु 'ततः हरिः खलसिविलोकनास्वपात्तव्यम्' इसि व्रतेन कुलालाल्लयनिधानः, पयःपूराविपिष्टशकटपरित्यागाडिंगतोरगोद्गौगंगरलवनिलमृत्युसंगतिरमातनामानीकुहफलपरिहारेण यतिकान्तकिपाकफलापावितापतिः, पुनरविचार्य हिमपि कार्य मा चर्ममिति गृहीततजाति रेकदा निशि नगरनायकमिलये" नटनस्पनिरीक्षणात्कृतकालक्षेपक्षणः स्यावासमनुसृत्य शविघटितकपाटपुटसषिवन्यः स्वकीयया सविश्या विहित गाढावपइनमारमकल जातनिवातन्त्रमवलोक्योपपति शङ्कया मुहल्लातखनो भगवतोपपारितं प्रतमनुसस्मार। ''शुश्राव च देवात्तदेव 'मनागत मत्तः परतः सर, खरं मे शरीरसंबाध:११, इति गृहिणीपिरम् । तनाव पदोन वतनमय नायडौषम, तदेमा मातरमिदं च प्रियकलत्रमसंशयं विश"स्येह बुरपथावरजसारमत्र परन्तनसां भागी भवेयम्' इति जातनिर्वेकः सर्वमपि शातिलोकं यथायर्य मनोरथोत्सेक "मबापाप्य 'यत्रव देश दुरपवाबोपहतं चेतस्तत्रैव वैशे समाश्रीयमाणमावरमा निर, 1 शिलोपोशा:य स यतो निदेशावरणिमूषण __ आचार्य से कहे हुए उपदेगा को सुनकर आचार्य श्री को नमस्कार कर धन्वन्तरि ने बाहा-'भगवन् ! यदि यह बात सत्य है तो किसी मृत-प्रदान से इस मानव का भी अनुग्रह कीजिए। आचार्य ने कहा-तुम प्रतिदिन गब्जे ( घुटे सिर ) व्यक्ति का दर्शन करके भोजन किया करो।' इस व्रत के ग्रहण से धन्वन्तरिको कुम्हार से निधि का लाभ हुआ (धन से भरा हुआ घट मिला) [ फिर उसने आचार्य से आटे के बने हुए पशुओं के न खाने का नियम लिया] अतः उसने दुग्ध पूर मे भरी हुई आटे के पशुओं वाली गाड़ी का त्याग किया; क्योंकि उस आटे के पशुओंमें जहरीला साँप जहर छोड़कर गया था, इससे वह मरण-संगम से बच गया । [फिर उसने आचार्य से अज्ञात नाम बाले वृक्ष के फल न खाने का नियम लिया] इससे 'अज्ञात नामवाले वृक्ष के फल नहीं खाना चाहिए' इस व्रत के ग्रहण से वह विर्षले फल-भक्षण से उत्पन्न हुए मृत्यु-संकट से बच गया। पुनः इसने 'बिना विचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिए' यह व्रत धारण किया। एक समय रात्रि में राजमहल में नट-नृत्य-देखने में इसका काफी समय लग गया। जब यह अपने गृह जाकर बन्द किये वार किवाड़ धीरे से खोलने को तत्पर हुआ तब इसने अपनी माता द्वारा किये हुए गाढालिङ्गन वालो सोती हुई अपनी स्त्री देखी तो इसे अचानक जार को शङ्का हुई। अतः इसने उसके घात के लिए खङ्ग उठाया, उस समय इसे आचार्य द्वारा दिलाये हुए व्रत ( बिना विचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिये' ) का स्मरण हुआ। पश्चात् भाग्योदय से इसने निम्न प्रकार अपनी प्रियाके वाक्य श्रवण किये-हे माता! यहाँ से जरा दूर हटो मुझे शारीरिक कष्ट हो रहा है, तब बाद में इसने विचार किया--कि यदि आज मैं यह बत्त ग्रहण नहीं करता तो अपनी माता और अपनी प्यारी स्त्रो को निस्सन्देह मार डालता, जिससे मैं इस लोकमें अपकीर्ति रूप धूलियों का पात्र और परलोक में दुःख देनेवाले पापोंका भागी हो जाता। इस प्रकार उसकी आत्मा में वैराग्य उत्पन्न हो गया। बाद में उसने समस्त कुटुम्बीजनों के यथोचित मनोरथ पूर्ण किए। { पश्चात् उसने जिन दोक्षा लेनेका विचार किया तब आचार्यश्री ने कहा-'जिस देश में मानव-चित्त १. खल्याटदर्शनान् । २, भोक्तव्यं । ३. भाप्त लापभी। ४. मरणं । ५, न कर्तव्य । ६. सन् । ७. राजगहे। ८. मात्रा। ९. कुतगादावलिङ्गनं। १०. जार। ११. श्रुतवान् का गृहिणीगिरं वाणी । १२. हे अत्त हे मातः । १३-१४. परतः सर यनो में खरं कदिनं शरीरसंवाव इति । १५. मारयित्वा । १६. प्रकर्ष । १७. श्रीधर्माचार्यस्य ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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