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________________ षष्ठ आश्वासः २१३ वेष्टितहरिषन्वन्तरिनाम । तथा तन्नपतिपुरोहितस्याग्निलाययितायोदितोदिताभकर्मणः सोमशर्मणः सुतो विश्वरूपविश्वेश्वर-विश्वमूति-विश्वामित्र-विश्वावसु-विश्वावलोकानामबरजः समस्लमवत्तप्रतिलोमोर विश्वानलोमो नाम । तो दापि सहपांशुक्रोक्तिस्वात्समानशीलव्यसनत्वाच्च क्षीरनीरबसमाचरितसम्यो तमविरापरदारीधिनायकार्यपर्यायप्रवर्तनमुस्यो सन्तो सेनावनीपतिनास्मोपनगरासनिकारं निर्वासितो कुरुजाङ्गलदेशेषु वोरमतिमहादेवीवरेण पौरनरेश्वरेणाधिष्टितं यमवण्डतरपालेनाधितमशेषसंसारसारसीमन्तिनीमनोहरं हस्तिनागपुरमवाप्प संपा वितावस्पिती कवातिवस्तमस्तकोसंसलपनातपमिचये संध्यासमये मह"मयोमलिनापोल पालोनिलोनातिकुलालित्यभागमुखपटाभोगभजनेप्रमरानीलगिरिकुरुजरारूपच्छन्दतोऽभिमुनमागच्छतो निवृत्य धोधर्माचार्योच्चामाणमयोचित नित्यमण्डितं नाम चैत्यालयमासावयामासतुः । सत्र ध 'धन्वन्तरे, यदि सीधपिशितोपवंशप्रमुखानि संसार सुखानि स्वेच्छपानुभवितुमिच्छसि तवावश्यममीषामम्बरम्बारावृत्तयां धर्मो न योतय्यः' इत्यभिषाय पिघाय ध श्रवणयुगलमतिनिर्भर प्रमीला बलम्बिलीमनायामो विश्वानुलोमः सुप्वाप । धन्वन्तरि "स्तु 'प्राणिनां हि नियमेन किमप्पलितात्मतया समुपपातं भवत्युदर्फे ऽवश्यं स्वःश्रेयसः धनदत्त'-'धनेश्वर' और 'धन्वन्तरि नाम के पुत्र थे, उनमें तोटा पत्र 'धन्वन्तरि' मा प्रकार की कार कपट-पूर्ण चेष्टाओं में विष्णु-सरीखा था। राजा का पुरोहित धर्म कर्म में विशेष निपुण 'सोमशर्मा' था। उसकी पत्नो का नाम अग्निला था। उनके 'विश्वास' "विश्वेश्वर' 'विश्वमति', "विश्वामित्र'-'विश्वावर विश्वावलोक' और 'विश्वानुलोम' नाम के पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र विश्वानुलोम' समस्त सदाचार का विद्वेषो था । धन्वन्तरि व विश्वानुलोम साथ-साथ धूलि में खेले थे तथा दोनों का स्वभाव और बुरी आदतें भी समान थी, इसलिये दोनों में दूध पानी सरीखी घनिष्ठ मित्रता थीं। जब इन दोनों ने राज्य में उपद्रव करना शुरू किया-जुआ, बाराब, परस्त्री-गमन ब चोरो-आदि म्लेच्छों के अनाचार में अग्रेसर हुए तब उक्त नगर के राजा ने दोनों को तिरस्कार पूर्वक नगर से निकाल दिया। इससे वे 'कुमजाङ्गल' देश के ऐसे हस्तिनागपुर नगर में आकर ठहरे, जो कि 'वोरनरेश्वर' नाम के राजा और वीरमति महादेवी नाम की रानी तथा यमदण्ड नाम के कोट्टपाल से मधिष्ठित था और समस्त संसार में सर्वोत्तम युवतियों से मनोहर था। किसी समय जब ऐसा संध्या-समय हो रहा था, जिसमें अस्ताचल पर्वत के शिखर का कर्णभूषण सुर्यका उष्णता-समूह वर्तमान है, तव वे दोनों स्वच्छन्दता के साथ सन्मुख आते हुये 'नोलमिरि-सरीखे मदोन्मत्त हाथी को देखकर लोट कर भागे, जिसके मुखरूपी विस्तृत वस्त्र की रचना का विस्तार मदरूपी कज्जल से मलिन हुये प्रशस्त गण्डस्थलों पर लीन होने वाले भ्रमर-समह से आस्वाद्यमान हो रहा था। तत्पश्चात वे दोनों ऐसे नित्यमण्डित' नाम के चैत्यालय में प्राप्त हुये, जो कि 'श्रीधर्माचार्य' से निम्पण किये जानेवाले धर्म-श्रवण के योग्य था । वहाँ पर विश्वानुलोम' ने धन्वन्तरि से कहा-'धन्वन्तरि ! यदि मद्य, मांस व मधु की प्रधानता बाले सांसारिक सुख यथेच्छ भागने के इच्छुक हो तो तुम्हें अवश्य दिगम्बरों का धर्म नहीं सुनना चाहिये ।' ऐसा कहकर दोनों कानों को बन्द करके नींद लेनेवाले विस्तृत नेत्रोंवाला विश्वानुलोम आंग्वे मोंचकर सो गया। वहाँ आचार्य कह रहे थे 'निश्चय से यदि प्राणो दुइता के साथ निगमपूर्वक किसी भी प्रत का पालन करे तो उत्तरकाल ( भविष्य ) में बह व्रत अवश्य ही उसका स्वर्ग सुख पैदा करता है । १. अग्रजः वर्षीयान बरामी ज्यायान् । २. सदानारशत्रः। ३. सपरिमव । ४, कृत। ५. मद एव मन्त्री तया । ६. प्रशस्तकयोल । ७. ले स्वाधमान । ८. निद्रा। ९. विप्रः। १०. धन्वन्तरि इत्यवोचत् । ११. गृहीतं सत् । १२. उद: फसमप्तरं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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