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________________ २१२ वास्तिकथम्पूकाव्ये इत्युपासकाध्ययने मूढतोन्मथनो नाम चतुर्थः करूपः । शनकाङ्क्षावितित्वा त्र्यश्लाघा च मनसा गिरा। एसे दोषाः प्रजायन्ते सम्यक्स्यक्ष तिकारणम् ।। १४९ ।। अनु इति व्याधिष जोटका अन्तिभति पाने प्रचक्षते ।। १५० ।। एतत्वमिवं तस्वमेतबूब्रतमिदं धतम् । एष देववत्र वेयोऽयमिति शङ्कां विदुः पराम् ॥१५१ ।। इत्थं वाङ्कितचित्तस्य न स्वानशुद्धता । न चास्मिन्नपिता बाप्तिर्य येवोम' यवंदने" ।। १५२ ॥ एष एव भवेद्देवस्तस्वमप्येतवेध हि । एतदेव व्रतं मुक्त तदेवं स्यादङ्कषीः ॥१५३॥ तस्वे जाते रिपी दुष्टे पात्रे वा समुपस्थिते । यस्य बोलायते वित्त रिक्तः सोऽपुत्र ह ॥१५४॥ श्रूयतामत्रोपाख्यानम् — इवाकाश्चर्यसमीपे जम्बूद्वीपे जनपदाभिधानास्पदे जनपदे भूमितिलकपुरपरमेववरस्य गुणमाला महादेवीरतिकुसुमदारस्य नरपालनाम्नो नरेन्द्ररूप श्रेष्ठी सुनो नाम धर्मपत्नी वास्प जनित निखिलपरिजनवयानन्दा सुनन्दा नाम । अनयोः सूनुषंगद धनबन्धु धनप्रिय- धनपाल धनदत्त- घनेश्वराणामनुजः सफलकूटकपट इस प्रकार उपासकाध्ययन में मूढता का निषेध करनेवाला चौथा कल्प समाप्त हुआ । निम्न प्रकार ये पाँच दोष ( अतीचार ) सम्यग्दर्शन को हानि करने में कारण हैं । शङ्का, काङ्क्षा, विचिकित्सा, मन तथा वचन से मिध्यादृष्टि की प्रशंसा करना ॥ १४९ ॥ शङ्का बतीचार-निरूपण - 'मैं अकेला हूँ, तीन लोक में कोई ( पिता व भाई आदि ) मेरा रक्षक नहीं है।' इस प्रकार बुखार व गलगण्डआदि रोग-ममूह के आक्रमण से होनेवाली मृत्यु से भयभीत होने को 'शङ्का' कहते हैं || १५० ।। ' अथवाआचार्य, यह जिनोक्त तत्व है ? अथवा वैशेषिका आदि से माना हुआ यह तत्त्र है 'यह व्रत है, या यह व्रत है ?' यह जिनेन्द्रदेव हैं ? कि यह हरिहर आदि देव हैं ? इस प्रकार के संशय को शङ्का जानते है ।। १५१ ॥ ऐसी शङ्कित चित्तवृत्तिवाले सम्यग्दृष्टि मानव का सम्यग्दर्शन विशुद्ध नहीं होता और न उसे बैसो अभिलषित वस्तु ( स्वर्ग व मोक्ष ) प्राप्त होती है जैसे नपुंसक मानव को अभिलषित वस्तु ( स्त्री-संभोग ) प्राप्त नहीं होती । मथवा पाठान्तर में ( 'उभयवेतने' ) जैसे भयभीत पुरुष को अभिलषित वस्तु ( विजय श्री आदि) प्राप्त नहीं होती ॥ १५२ ॥ अतः निश्चय से यह बीतराग सर्वज्ञ ही देव है, एवं उसके द्वारा कहे हुए जीवादि तत्व हो प्रामाणिक हैं, तथा अहिंसा आदि व्रत हो मुक्ति के कारण हैं, ऐसा जिसका दृढ़ विश्वास है, वहीं मानव निःशङ्क बुद्धिवाला है || १५३ ॥ तत्व के जान लेने पर व शत्रु के दृष्टिगोचर होने पर एवं पात्र के उपस्थित होने पर भी जिसका चित्त झूला सरीखा डोलता है, ( जो कुछ भी निश्चय नहीं कर सकता ) वह इस लोक व परलोक में रिक (खाली हाथ - सुख-शून्य ) रहता है ।। १५४ ॥ १. निःशङ्कत अङ्ग में प्रसिद्ध गञ्जन चोर की कथा -- अब निःशङ्कित अङ्ग के संबंध में कथा सुनिए -- निकटवर्ती अनेक आश्चर्यजनक वस्तुओं वाले इसी जम्बूद्वीप के 'जनपद' नाम के देश में 'भूमितिलकपुर' नाम का नगर है । उसका स्वामी 'नरवाल' नाम का राजा था. जो कि 'गुणमाला' नाम की पट्टरानीरूपीरति के लिये कामदेव सरीखा था। उसके राजश्रेष्ठी का नाम 'सुनन्द' था। सुनन्द के समस्त परिवार के हृदय को आनन्दित करनेवाली 'सुनन्दा' नामकी सेठानी थी। इन दोनों के 'धनद', 'धनबन्धु', 'घनप्रिय' 'घनपाल' १. त्रिचिकित्सा । २. भयं करोति मम सहाय पिता भ्रातादिको नाहित बाञ्छायां यथा वाञ्विार्थप्राप्तिर्न भवति । ५. 'उभयवेतने' पनि कान्दिके ममीते । ३ उत्क्रान्तिः मरणं । ४ नपुंसकस्य वंदने ख़०, ग०,० प्रति पाठः । तत्र टिप्पणी
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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