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________________ षष्ठ आश्वासः परपुपासकाध्ययन आगमपदार्थपरोमणो नाम तृतीयः कल्पः । पूर्थोि ग्रहणस्नानं संकान्तो विणव्ययः । संध्यासेवाग्भितरकारी गेहदेहार्चनो विषिः ॥१३९॥ नदीनाइसमुनेषु मज्जनं धर्मचेससा । सक'स्तू पानभक्तानां वन्वनं भृगु संश्रयः ॥१४०॥ गोपृष्ठानमाारस्तन्मूत्रस्य निक्षेवणम । रलवाहन यशशस्त्रशलाविशेषगम् ॥१४९।। समयान्तरपासवेश्लोकसमाश्रयम् । एवमायिविमूढाना क्षेयं मूमनेकपा ॥१४२॥ बरा लोक वार्तामुप रोधार्थमेव वा । उपासनममीषा स्यात्सम्यग्दर्शनहानपे ॥१४॥ क्लेशायय कियामीषु म फसायाप्तिकारणम् । यद्भवेन्मुग्वघोषानामूषरे कृषिकर्मवत् ॥१४॥ वस्तुममेव भवेभक्तिः शुभारम्भाय भाक्तिके 1 न घस्नेषु रत्नाप भावो भवति भूतये ॥१४५।। अवे बेचताबुद्धिमत्ते तभावनाम् । अतस्ये तत्वविज्ञानमतो मिप्यास्त्वमुत्सृजेत् ॥१४६॥ समापि यदि मूहत्वं न स्पजेल्कोपि सर्वथा । मित्रत्वनाममान्योऽसौ सर्वनाशो में सुन्दरः ॥१४॥ १°न स्वतो जन्तवः प्रेर्या दुरीहाः स्युजिनागमे । स्वत एष प्रवृत्तानां तद्योग्यानुग्रहो मतः ॥१४॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में बागम व पदार्थों की परीक्षा करनेवाला तीसरा कल्प ममाप्त हुआ। अब लोक में प्रचलित मूढ़ताओं का निषेध करते हैं-सूर्य की पूजा-निमित्त जल चढ़ाना, ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्ति होने पर दान देना, संध्या चन्दन करना, अग्नि को पूजना, मकान व शरीर को पूजा करना, नदी, तालाव व समुद्र में धर्म समझ कर स्नान करना, वृक्ष, पथवारी व भात को नमस्कार करना, पर्वत से गिरने में धर्म मानना, गाय की पीठ को अनेक देवताओं का निवास स्थान समझकर नमस्कार करना और उसका मूत्र पीना, रत्न, सवारी, पृथ्वी, यक्ष, शास्त्र ( खड्ग आदि ) और पर्वत-आदि को पूजा करना', दूसरों के शास्त्रों की पूजा करना व उनमें उल्लिखित पाखण्ड को धर्म समझना एवं वेद व लोक से संबंध रखने वाली इत्यादि मिथ्यादृष्टियों द्वारा मानी हुई अनेक प्रकार की मूढ़ताएँ समझ लेनी चाहिए ॥ १३९-१४२ ॥ जो लोग घर-प्रदान को आशा से या लोक-रिवाज के विचार से एवं किसी के आग्रह से इन मूढ़ताओं का सेवन करते हैं, उनका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है ।। १४३ ॥ जैसे ऊपर जमीन में खेती करने से कष्ट उठाने के सिवाय कोई लाभ नहीं होता वैसे ही मूखों द्वारा मानो हुई उक्त मढ़ताओं के मानने से भी कष्ट उठाने के सिवाय कोई फल प्राप्त नहीं होता ।। १४४॥ यथार्थ वस्तु में की गई भक्ति ही भक पुरुष को पुण्य बंध कराती है, क्योंकि जैसे पत्थर को रन मानने से कल्याण नहीं होता ॥ १४५ ।। कुदेव को देव मानना', अत्रत-दुराचार को व्रत मानना और अतत्व को तत्व मानना मिथ्यात्व है, विवेकी को इसका त्याग करना चाहिए ॥१४६ ।। तथापि जो मानव इस मूढ़ता को सर्वधा नहीं छोड़ता और सम्यक्त्व के साथ-साथ किसी मूढ़ता का भी पालन करता है तो उसे सम्यरिमथ्यादष्टि मानना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सेवन के कारण उसके समस्त धर्माचरण का लोप कर देना, अर्थात् --उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना ठीक नहीं है ।। १४७ ।। जिन मनुष्यों को चेष्टाएँ अच्छी नहीं हैं, उन्हें जिनागम में स्वयं प्रेरित नहीं करना चाहिए, अर्थात्-ऐसे मनुष्यों को जैनधर्म में लाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये किन्तु जो स्वयं जैनधर्म में रुचि रखते हुए प्रवृत्ति करना चाहते हैं, तो उनके योग्य अनुग्रह कर देना चाहिये ॥ १४८ ॥ १. वृक्षः । २. पाषाणः स्तुपामः पथवारी। ३. भोवन । ४. गिरिपातः। ५. 'देवलोक.लि.क. नार्थ 1 ७. 'लोकयात्रार्थ' इति ह० लि० (क०) (१०) (च०) प्रतिषु । ८. आयह । १. सत्यपदार्थ सर्वज्ञ पीचरागे । १०. ये नरा दुरीहाः शुश्चोक्टास्ते न प्रेरणीयाः क्व जिनागमे । ये च स्वयं प्रवृत्तास्तेषां योग्यानुरहः कार्यः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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