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________________ २२० यशस्तिलक चम्मकाव्ये घस्मराडम्बरप्रथममा मनिबह: प्रचण्डलहिण्डसंघट्टोपसमयावसंदोहःसहै। निःसोमसमीरासरालमत्कारसारप्रसर प्रवल: करालवतालकुलकाहलकोलाहलानुकलरनन्यसामान्यरन्पश्च परिगृहीतगृहवाहवान्यवधनविध्वंसानुषन्धः प्रत्यूह प्रायः सबहुमानस्तत्तद्वरप्रदानश्च निःशेषामप्युगामध्यात्मसमाधिनिरोपनि नौ विहितबहविघ्नावपि तमेशापभावाभ्यासात्मसाकृतान्तःकरणवाहिकरणेहितं शमहम्य निर्माणकार्मणपरमाणप्रबर्धनाबमध्यानाधालयितुं न शेफातुः । संजाते प स्वरकिरणविरो'कविनिमतान्धकारोनये प्रातमा सम्पहतोपपर्गवी प्रकामप्रसनसगो तस्तमहाभागोचितः प्रणयोगितराश्लाघ्य तस्मै जिनदत्ताय विहायोविहाराम पञ्चविंशनिवद्या विद्या वितरतुः । इयं हि विद्या सवालमवनुप्रहादम्बरविहारायासंसाधितापि भविष्यति परेषा स्वस्माविरिति । जिनदत्तोऽपि कुलशलशिसण्टमण्डजिनायसनालोकना हलिलावायः समाचरितामरानुवर्तनसमपस्तां विद्या प्रतिपच वयवर्शनोत्सवसमानीतनिखि १ "लनिलिम्पाचल" धेस्यालयस्तवबलोकनकृतकौतुकास बरसेनाय परमाप्तोपासनपटने पुष्पक्टचे प्रावात् । पुनरम्यमित विद्युतप्रभ, जिनदत्तोऽयमतीवादभिमतवस्तुपरिणतचित्तः स्वभावावेव च स्थिरमतिएशेषोपसर्गसहमप्रकृतिश्च । तब महदप्यपकृत कुलिश घुणकोटधेष्टितमिय न भवति समयम् । अतोऽन्यमेव कञ्चनाभि उक्त प्रकार विशेष विघ्न करने वाले भी वे दोनों देव उस जिनदत्त को, जिसकी चित्तवृत्ति व बाह्य इन्द्रियवृत्ति की चेष्टा एकाग्नभाव के अभ्यास से आत्माधीन हो चुकी थी, ऐसे धर्मध्यान से, जो कि स्थायी सुखरूपी महल का निर्माण करने वाली पुण्य कर्म को परम्परा को वृद्धिगत करता है, विचलित करने के लिए समर्थ नहीं हुए। इतने में जब सूर्य की किरण-समूह द्वारा अन्धकार-समूह को नष्ट करने वाला प्रातःकाल हो गया सब उन्होंने अपने उारसर्ग-समूह रोक दिये और वे विशेष प्रसन्न अभिप्राय वाले हुए और भाग्यशालियों के योग्य प्रेम-भरे वचनों से उसकी प्रशंसा करके उसके लिए आकाश में विहार करने के लिए पैलोस अक्षरों से निर्दोष आकारागामिनी विद्या प्रदान को और कहा-'यह विद्या हमारे अनुग्रह से विना सिद्ध की हुई भी तुम्हें आकाश में विहार कराने में समर्थ होगी, परन्तु दूसरों को अमुक विधि से सिद्ध को जाने पर। जिनदत्त भी, जिसका मन सुमेरु पर्वत की शिखर को अलंकृत करने वाले अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने में कौतूहल-युक्त है, एवं जिसने प्रस्तुत विद्या के लिए देवों की तरह आकाश में ले जाने का संकेत किया है, उक्त विद्या प्राप्त करके पंचमेरु के समस्त चैत्यालयों को हार्दिक दर्शनोत्सव में लाया। इसके बाद उसने उक्त चैत्यालयों के दर्शनार्थ उत्कण्ठित द ईश्वर-भक्ति में निपुण पुरुष-श्रेष्ठ धरसेन श्रावक के लिए उत्त विद्या दे दी। पुनः 'अमितप्रभ' ने विद्युतप्रम' से कहा-'विद्युतप्रभ ! यह जिनदत्त सम्यग्दृष्टियों से माने हुए जीवादि तत्वों के विषय में परिपक्व बुद्धिवाला ( दृढ़ श्रद्धालु) है और स्वभाव से निश्चल बुद्धिशाली है तथा समस्त उपसर्गों के सहन करने की प्रकृति वाला है, अत: इस पर किये जाने वाले महान् उपसर्ग भी वैसे व्यर्थ होते हैं जैसे वच पर घुग-कीट की चेष्टा व्यर्थ होतो है, अतः नवीन जिनेन्द्र भक्ति की स्थानीभूत बुद्धिवाले किसी दूसरे श्रावक की परीक्षा करें।। ऐसा विचार करके दोनों देव वहाँ से प्रस्थान कर गए और उन्होंने मगषदेश को अलङ्कृत करने वाली मिथिलापुरी के स्वामी ऐसे 'पधारथ' राजा को देखा, जिसने ऐसे सुधर्माचार्य से, सम्पग्दर्शन पूर्वक १. प्रारम्भावई: मु. एवं 'ख' प्रती। * विनसमूहः । २. विधनरचनः । ३. रात्रि । ४. निघ्नः तत्परः । ५. न समर्थों तो देवो । ६. दिरोकः किरणः रश्मिः । ५ सर्गः अभिप्रायः अभिप्रायो। ८ दत्तवन्तौ । ५. देववत् । १०. समस्त । ११. पंचमेकः । १२. ता विद्यां । 2. अईद्देवोयत्याहलः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । १३. पर्छ ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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