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________________ षष्ठ आश्वासः अन्तस्तस्यविहीनस्य वृपा व्रतसमुद्यमः । पुंसः स्वभावभीरोः स्यान शौर्यायायुज वहः ।। १५७ ।। ' त्युपासकाध्ययने जमवतितमः प्रत्यवसादनो नाम पश्वमः कल्पः । पुनस्तौ शो मगधदेशेषु कुशान नगरो - पान्तापालिनि पितृवते कृष्णचतुवंशी निशि निशाप्रतिमाशयवदामेकाक्रिमं जिनवत्तनामानमुपासकमवलोक्य साक्षेपम् अरे दुराचाराचरणमते निराकृते प्रविदितपरमसव मनुष्यापसव, शीघ्रमिमामुध्वंशो वं शुष्क स्थाणुसमा प्रतिमां परिश्वम पायस्व । न श्रेयस्कर्ट व तवात्रावसरं पश्यावः । यस्मादावां ह्येतस्याः परेतपुर भूयस्य भूमेः पिशाचपरमेश्वरी । Raलपत्र कालव्यालावलोकनकरप्रस्थानेन । मा १० हि कार्योरन्तरायोत्कर्षो भावमलुच्छस्वच्ण्वकेलिकुतूहलबहुलान्तः करणप्रसवयोरावयोः' इत्युक्तमपि प्रकामप्रणिधानोद्युक्तमवेद यशत: कीनाशकास' 'रनिकायकायाकार घोरघन * २१९ जैसे स्वभाव से भयभीत मानव का शस्त्र धारण शूरता लिए नहीं होता ( व्यर्थ होता है } वैसे ही आत्मज्ञान से शून्य ( रहित ) मानव का व्रत ( अहिंसा आदि ) -पालन का परिश्रम भो व्यर्थ होता है ।। १५७ ।। इस प्रकार उपासकाध्ययन में जमदग्नि तपस्वी को तपश्चयों से पतन करनेवाला पञ्चम कल्प पूर्ण हुआ । इसके पश्चात् उन दोनों देवों ने मगध देश के राजगृह नगर को निकटवर्ती श्मशान भूमि पर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में रात्रि संबंधी प्रतिमायोग ( घमंध्यान ) धारण के अभिप्राय के अधीन हुए व अकेले 'नियत' नाम के श्रावक को देखा और उससे निम्न प्रकार तिरस्कारपूर्वक कहा – 'अरे दुराचार करने की बुद्धिवाले ! विरूप, मोक्षपद को न जाननेवाले, निन्द्यपुरुष ! ऊपर खड़े होकर शरीर सुखाकर सूखे ठूंठ सरीखे इस कायोत्सर्ग को छोड़कर भाग जा । हम लोग निश्चय से तेरा यहाँ ठहरना कल्याणकारक नहीं देखते। क्योंकि पिशाचों के स्वामी हम दोनों इस विशाल श्मशान भूमि के स्वामी हैं । इसलिए यहाँ ठहरने से तुम्हें कालरूपी सर्प से हंसे जाने के सिवाय कोई लाभ नहीं हो सकता। क्योंकि हम दोनों के अन्त:करण में श्रेष्ठ व स्वच्छन्द कोड़ा करने का विशेष कौतुहल उत्पन्न हो रहा है, इसमें विशेष विघ्न वाघा मत डालो । ऐसा कहने पर भी उसे आत्मध्यान में विशेष तल्लीन देखकर वे दोनों देव समस्त रात्रि तक ऐसे विघ्नों की सृष्टि रचना ) से उसे आत्मध्यान से विचलित ( डिगाने ) करने में ततार हुए, जो कि यम के वाहन महिप-समूह के पारीर को आकृतिवाले ( काले काले ) भयानक मेघों की गर्जना ध्वनि को शुरू मैं प्रारम्भ करनेवाले थे । जो प्रचण्ड बिजलीदण्ड के संघट्टन से बहुत ऊँची जाने वाली गड़गड़ाहट के शब्दसमूह से सहन करने के लिए अशक्य थे। जो सोमातीत ( मर्याद) प्रचण्ड वायु के सूत्कार-सार ( झकोरों के शब्द ) के विस्तार से महाशक्तिशाली थे । जो अत्यन्त भयानक वेताल समूह के उत्पाती कोलाहल के अनुकूल ये एवं जो अन्य साधारण मनुष्यों से करने के लिए अशक्य थे तथा जिनमें उसके मकानात जलाना और बन्धुजनों के और धन के नाश का संबंध वर्तमान था। इसी प्रकार विशेष आदर सहित मनचाही वस्तु देने से वे दोनों देव समस्त रात्रि पर्यन्त उसके आत्मध्यान को रोकने के अधीन हुए । १. राजगृह २ तिरस्कृतं । ३. निकृष्टा आकृतिर्यस्य वात्यः संस्कारहीनः स्यादस्वाध्यायो निराकृतिः । ४. निन्द्य मक्तिरहिवः । ५, ऊर्धशोषं 'ऊर्ध्व शुषिपुरो:' वें तुंवाचिन्युपपदे शुषः पूरेश्च णम् ऊर्ध्वशोषं । ६. शुष्कः सचासो स्थाणुः तत्समां ७ कायोत्सर्ग । ८. महत्वाः । ९. स्थिनिकरणेन । १०. आवयोर्मा कार्योः । ११. ऊर्ध्वः खन् । १२. ध्यानस्थं । १३. सुर्वतः । १४. यम । १५. महिषः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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