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________________ पष्ठ आश्वासः २२१ नजिनोपासनायतनचैतम्यं निकवायः' इति विमृश्योन्वलिताभ्यामेताम्यो मगधमण्डलमण्डनमिथिलापुरीनाम: पचरथो नाम नरपतिनिजनगरनिस्टलटीघरवृतदेहा' या कालगुहायां निवासरतमनमो' बोप्तप्तपसो नि:शेषानिमिवपरिक्षिवष्यमाणाधरणचातुर्यासुधर्माचार्यासवणावता' भानभावदर्शनोपशान्ताशयः सम्यग्धानमनतासममादाय तदिवस एव तदुपदेशानिश्विताहत्परमेश्वरशरीरनिरतिशय कायम हिमः कृतनियमः सकलभवनपतिस्तूपमामगुणगणोतं धोवासुपूज्यमगषन्तमुपासितु प्रतिष्ठमानः प्रभव नावसुन्दरदुन्दुभिरवाकारितनिरवशेषपरिजनः ५°समालमरसफलविष्टपनिविष्टविशिष्टादृष्टयेष्टः स च वृष्टः कहामिवपि ममोपावा'विप्रलन्थः प्रारपश्चपुरप्लोषातः पुरविध्वंसवरूपिनोमयनप्रसमप्रमापजनो जितपजम्पपरुषवर्षांपलासारादिवसति भिमशाडू लोतराकृतिमिविकृति. भिष्पद्रोतुं तथाप्यविलितचेतसमवसाय नरवरकुञ्जर मापामयप्रतिधेता ५ व्याप्ताखिलादिगारामसंगमे कर्दमे मिम अयो ताम्यां नमः सुरासुरोपसर्गसङ्ग सूचनाभिघानमात्रमाहात्म्यसाम्राज्याप श्रीवासुपूज्याप' इति तत्र निमज्जतो भूभृतो बचनमाकर्म तद्भर्योत्कर्षोरिमपत्तोषमनीषाप्रमराम्यां मधु परिमुषिताशेषविघ्नम्पतिकराम्मामाचरितसरकाराम्याम् श्रावकों के अणुव्रत धारण किये थे, जिनका मन अपने नगर के निकटवर्ती पहाड़ से वेष्टित शरीर वाली कालगुहा में निवास करने के लिए सरस ( प्रीति-युक्त ) था। जो महातपस्वी थे और जिनके चरित्र-पालन का चातुर्य समस्त देवों को सभा से पूजा जा रहा था। उनके शारीरिक अद्भुत तेज व प्रभाव के दर्शन से जिसका राग शान्त हो गया था। उसी दिन जिसने आचार्य के उपदेश से अहन्त तीर्थर के शरीर के अनोखे प्रकाश की पूजा का निश्चय किया था और जिसने नियम लिया था। जो समस्त भुवन के स्वामियों से जिमके गुण-समूह का वृत्तान्त स्तुति किया जा रहा है ऐसे वासुपूज्य भगवान् की उपासना के लिए प्रस्थान कर रहा था । आनन्दमेरी की मधुर ध्वनि में मनोज्ञ दुन्दुभियों ( आनकों-वाद्यविशेपों ) की ध्वनि से उसने समस्त कुटुम्बी जनों को बुला लिया। जिसकी विशेष पुपय-चोष्टा समस्त लोक में प्रविष्ट होने का संबंध प्राप्त करती थी। जो कभी भी शुद्र उपनवों ( विघ्नों) से पराभूत नहीं हुआ था | पश्चात् उन दोनों देवों ने परीक्षा करने के लिए पनरथ राजा के ऊपर निम्न प्रकार को घटनाओं से विघ्न करना प्रारम्भ कर दिया, जिनमें उसके नगर का दाह, रनवास का विनाश, सेना का नाश और बलात् प्रचण्ड वायु के संचार से विशेष शक्तिशाली मेघों से उत्पन्न हुई कठोर ओलों की वृष्टि-आदि वाली भयानक जलवृष्टि पाई जाती है और जिनमें दुःख से भी दमन करने के लिए अशक्य तिहों को उत्तम आकृतियां पाई जाती हैं। उक्त उपद्रवों के करने पर भी उन्होंने मनुष्यों में श्रेष्ठ पमरथ राजा को विचलित न होनेवाले मनवाला निश्चय किया। तब उन्होंने उसे मायामयी विघ्नवाली, अगाध और जिसने समस्त दिशाओं व बगीचों के संगम को व्याप्त किया है ऐमी कीचड़ में डुबो दिया । इसके पश्चात् उन्होंने कीचड़ में डूबते हुए राजा के निम्न प्रकार वचन श्रवण किये-'ऐसे वासुपूण्य तीर्थकर भगवान के लिए नमस्कार हो, जिसके नाममात्र के माहात्म्य का साम्राज्य सुरासुर देवों के १. परीक्षावहे । २. पद्गरथी राजा यष्टः । ३. गिरिवेष्टित। ४. 'नटीप्रधृतदेहायां' इति (क)। ५. सुधर्माधार्मात सम्यक्त्वं प्रतं चादाय। ६. भारीरतेजः । २. महिगा महि पूजापामस्पौणादिक इम' प्रत्ययः । ८. वृत्ताप्तं । ९. आनन्दभेरी । १०, समासजन्ती संबंधमायान्ती। ११. अपराभूतः । १२. उपद्रो पारधः । १३. नगरदाह । १४. सेना । १५. बायुः । १६. स्थानः । १७, ज्ञाना । १८. विघ्ने। १९. अगाधे । २०. सूदनं निराकरणं विनाशनं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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