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________________ पष्ठ आश्वासः मतेन मणिमेनमानयत् कथं नाम स्तेन भावेन भर्वाङ्गः संभावनीयः । तत्प्रतमभ्यपीभूय प्रसभवपुषः सदाचारकरवार्जुम'ज्योतिषमेनं शमयत स्तुत नमस्यत वरिवस्थित छ । भवति चात्र श्लोक :--- मायासंयमिन्युत्स" सूर्प रत्नापहारिणि । बोषं निपूजयामास जिनेन्द्रो भक्तवापरः ॥१९२॥ इस्युपासकाप्ययने धर्मोपाहणाहगो माम द्वादशः कल्पः । परोपहनतोमिसागमनम् । सायेर भन्न नामी समास्थितम् ॥१९३|| सपता प्रत्ययस्यात' यो न रमति संयतम् । नूनं स दर्शनाबाह्यः समयस्थितिलाशनात् ॥११४॥ नवं संविग्धनिहिषिवष्यागणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्य: प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ॥१९५11 पतः समयकार्यार्थी नानापञ्चजनाश्रय: । अतः संबोध्य पो यत्र योरपस्तं तत्र योजयेत् ॥१९६॥ उपेक्षायां तु जायेत तत्वाद्दरतरो नरः । ततस्तस्म भयो "बोध: १२ समयोऽपि च होयते ॥१९७।। घोरी से रहित है। हमारे कहने से ही यह मणि लाया है। आपने किस प्रकार इसे चोर समझकर अनादरयुक्त-अपमानित किया ? अतः शीघ्र ही इसके पास आकर विशुद्ध चित्तवृत्ति व निर्मल वाह्येन्द्रिय वृत्ति वाले होते हए सदाचाररूपी कुमुद को विकसित करने के लिए चन्द्र-सरीखे इससे क्षमा मांगो, इसकी स्तुति करो, नमस्कार करो और इसकी पूजा करो ।' प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है-काटपूर्ण क्षुल्लक-वेषधारो और.वेड्र्य मणि को चुराकर वशीन भागने वाले सूर्य के दोष ( निन्दा) को जिनेन्द्र भक्त सेठ ने आच्छादित किया-छिपाया ।।१९।। इस प्रकार उपासकाध्ययन में धर्म के उपवृंहण गुण के निरूपण करने में समर्थ बारहवां कल्प समाप्त हुआ। अब स्पितिकरण अङ्ग का निरूपण करते हैं सम्यग्दृष्टि धार्मिक सज्जन को क्षुधा व तृषा-आदि परीषहों के सहन से व अहिंसा-आदि व्रतों के पालन से भयभीत हुए एवं आगम' के अध्ययन से रहित होने स धर्म से डिगते हुए साधर्मी भाई को घमं में स्थापित करना चाहिए ।।१९३|| जो धार्मिक पुरुष तप से भ्रष्ट होते हुए साधु को रक्षा नहीं करता ( उसे पुन: तप में स्थित नहीं करता ) वह आगम की मर्यादा का उल्लङ्घन करने के कारण निश्चय से सम्यग्दर्शन से वहिर्भूत ( मिथ्यादृष्टि } है ॥१९४|| जिनको निर्वाह (जैनधर्म के पालन ) में संदेह है, ऐसे नये मनुष्यों से संघ को वृद्धिंगत करना चाहिए। केवल एक दोष के करने से तत्वज्ञानी पुरुष कैसे छोड़ा जा सकता है ? अर्थात्-यदि उससे दोष हो जाय तो उसे ढंकना चाहिए ॥१९५|| क्योंकि बार्मिक कार्यों की सिद्धि अनेक मानवों के आश्रय की अपेक्षा करती है, इसलिए समझा-बुझाकर जो व्यक्ति जिस कार्य (धर्म-प्रभावना आदि) में कुशल है, उसे उसमें नियुक्त करना चाहिए ॥१९६॥ साधर्मी मनुष्य की उपेक्षा करने से वह धर्म से दूर हो जाता है ( धर्म छोड़ देता है ) और इससे उसका संसार, विशेष दीर्घ होता है और धर्म को भी क्षति होती है ।।१९७॥ १. चोरभावेन । २. निर्मलान्तःकरणबहिकरणाः सन्तः । ३. कुमुदं तस्य विकासने चन्द्रः । ४. पूजयत यूयं 1 ५. शीघ्र गामिनि । ६. स्फेटयति स्म । ७. जिनेन्द्रभक्त इत्यर्थः । ८. 'समयी समयस्थितः' (क०) । १. चलन्तं । १०. मनुष्यः । ११. संसारः। १२. दीर्घः स्यात् । ३२
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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