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________________ ૨૪૮ यशस्तिलकerget श्रेष्ठिन् मैवं भाषिष्ठा: यवङ्गनाजन संकीर्णेषु प्रविणोदीर्णेषु देशेषु विहितो किस प्रायेणासलिन मनसामपि मुलभोवाहाराः जलु खलजन तिरस्काराः ।' श्रेष्ठी – 'देशयतोश, म सत्यमेतत् । अपरिज्ञातपरलोकव्यवहारस्यावशेन्द्रियव्यापारस्य हि पुरुषस्य बहिःसङ्गे स्वान्तं विकुरुतां नाम न पुनर्यथानामन्य शांभवतोशाम्' इति बाहं देवगृहपरिग्रहाय तमयथार्थमुनिमभ्यर्च्य कलवपुत्रमित्रबान्धवे यकृत विश्वासो मनः परिजनदिन वाकुनपचनानुकूलतया नगरवाहिदिकार्या प्रस्थानमकार्षीत् । मापामुनिस्तस्मिवासरे तदगारमा कुलपरिया एमबबुध्यार्षावशेषाय निशि कृत रत्नापहारस्तन्मऐचिप्रचारावारभिक स्नुव्रतशरीरः पलायितुमशकस्तस्यैव धर्मनिर्माणपरमेष्ठिनः श्रेष्ठिनः प्रस्थानावासनिवेश माविवेश । श्रेष्ठयपि पुराना पहलातहको लाादा विग्राणमिद्रस्तदेनं सुवामुनिमुद्रमण "साय स्वभावतः शुद्धाप्तागमपदार्थसमाचारनवस्य निःशेषान्यवर्शनव्यतिरिक्तान्वयस्थ समयस्थाविचितपरमार्थजनापेक्षया रुपवादो मा भूदिति च विपि समस्तमप्यारक्षिक लोकमेयमभणीत् 'महो, पुर्वाणिकाः किमित्येनं संयमिनम भल्लेन भावेन संभावयन्ति भवन्तः, यदेष महातपस्विनामपि महातपस्वी परमनिःस्पृहाणामपि परमनिःस्पृहः प्रकृत्य महापुरुषो मायामोवरहित सरिस्मदर्भि लु अपने कूट पट क्रम को छिपाते हुए उसने कहा--' सेठ जी ! ऐसा मत कहिए, क्योंकि कमनीय कामिनियों से व्याप्त और धन से परिपूर्ण स्थानों में निवास करनेवाले निर्मलचित्तपालो महापुरुषों को भी प्रायः निश्चय से दुष्ट जनों के तिरस्कार सुलभता से कथन वाले होते हैं ।' सेठ – 'क्षुल्लक महाराज ! यह बात सत्य नहीं है, क्योंकि परलोक ( स्वर्ग व नरकादि) के व्यव हार को न जानने वाले व इन्द्रिय व्यापार को काबू में न करने वाले पुरुष की चित्तवृत्ति निश्चय से वाह्य पदार्थों ( कनक व कामिनी - आदि) में विकृत हो जाय परन्तु यथार्थदर्शी व असाधारण संघम पालने वाले आप सरीखे योगीश्वरों को चित्तवृत्ति वाह्य पदार्थों में कैसे विकृत हो सकती है ? इस प्रकार जिनेन्द्र भक्त सेठ ने स्त्री, पुत्र, मित्र व बन्धुजनों में विश्वास न करके अपने जिन मन्दिर में निवास करने के लिए उस झूठे मुनि से विशेष आग्रह पूर्वक प्रार्थना की और मन, कुटुम्बोजन, दिन, शकुन व बायु को अनुकूल देखकर नगर के बाह्य देश में प्रस्थान किया । उसी अवसर पर वह कपटी मुनि उस सेठ के गृह को नींद में सोते हुए कुटुम्बीजनों वाला जानकर अर्ध रात्रि में रत्न अपहरण करके ज्यों हो चला वैसे ही उस रत्न को किरणों के फैलते से नगर-रक्षकों ने उसका पोछा किया। जब वह भागने में असमर्थ हुआ तो वह चोर उस धार्मिक जिन मन्दिर के बनाने में ब्रह्मा सरीखे जिनेन्द्र भक्त सेठ के प्रस्थान के निवास स्थान में प्रविष्ट हो गया- घुस गया । गाली देना बादि खोटे भाषण से प्रचुर जन नगर-रक्षकों के कोलाहल से सेठ की नोंद शीघ्र खुल गई और उसने इसे कपटी क्षुल्लक के रूप को धारण करने वाला जानकर निम्नप्रकार विचार किया- 'जैन शासन की, स्वभाव से जिसके आस, आगम, पदार्थ, आचार व नय निर्दोष हैं और जो समस्त अन्य दर्शनों को अपेक्षा अधिक आम्नाय वाला है, परमार्थ को न जानने वाले अज्ञानी पुरुषों की अपेक्षा से निन्दा या अपकीर्ति नहीं होनी चाहिए।' इस विचार से उसने समस्त नगर रक्षकों से कहा- 'अरे दुष्ट वचन बोलने वालो ! आप लोग क्यों इस संयमी चरित्रवान् सज्जन पुरुष का खोटे परिणाम से तिरस्कार करते हैं ? क्योंकि यह महान तपस्वियों में भो महातपस्वी हैं और अत्यन्त निःस्पृही महापुरुषों में विशेष निःस्पृही है। यह स्वभाव से हो महापुरुष है। इसको चित्तवृत्ति मायाचार व १. औक: आवास: । २. 'अनन्यसंयमस्पृशाम् ० ) । काम्नायस्य ७ असमीचीनेन परिणामेन । ३. ब्रह्मणः । ४. शीघ्र । ५. ज्ञात्वा । ६. अधि
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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