SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० यशस्तिलक चम्पूकाव्ये भूयतामत्रोपाख्यानम्-मगवदेशेषु रायगृहापरनामावसरे पञ्चशेलपुरे चेलिनीमहादेवोप्रणयक्रेणिकस्य' श्रेणिकस्य गोरा कलत्रस्य पुत्रः सकलरिपुराभिषेणो' वारिषेगों नाम । स किल कुमारकाल एव संसारसुखसमागमविमुखमानसः परमवैराग्योपूर्णः पूर्णनिर्णयरसः श्रावकषारायमधाषिषणतपा गुरुपासमसंवीणतया च सम्पगवसितोपासकाध्ययनविधिराश्चर्यशार्थ निषिरेफवा प्रेत मिष मतवासरविमावयाँ रात्रिप्रप्तिमास्थितो बभूव । अत्रावसरे क्षपाया: परिणताभोगे सलु मध्यभागे' मगधसुन्दरीनामया पण्याङ्गन "यात्मत्यतीबासक्तचित्तवृत्तिप्रसरो मृगवेग नामा चोर शयनतालमापन्नः'समेवमुक्त:-'राजयतितो तात्तनामनिदकीनियसीमापायाः प्रियापार: स्तनमण्डल'२. मनोवारसलंकारसार प्रारमिवामीमेवानीय यदि विश्राणयति३, तवा त्वं मे रतिरामः, अन्यथा प्रणयविरामः' इति । सोऽप्यवशानङ्गवेगो मगवेगस्तवचनावेव तायतनानिःसृत्याभिमृत्य'५ निजकलावलात्तस्य घनवसत्यागारमाधरितहारापहारस्तरिकरणनिगरनिश्चित वरणबारतलारानुधरनुसृतो मृगायितुम समयस्तस्य व्युत्सर्गवेषमुपेयुषो इस विषय में एक कथा है, उसे सुनिए । मगध देश में 'पंचशैलपुर' नाम का नगर है, जिसे 'राजगृह' इस दूसरे नाम का अवसर प्राप्त है, उसमें चेलिनी-महारानी के प्रेम का ग्राहक व पृथिवीरूपी स्त्रोवाले 'श्रेणिक' राजा के शत्रुओं के नगरों पर सेना से आक्रमण करनेवाला ( वीर ) 'वारिषेण' नाम का पुत्र था । उसको मनोवृत्ति निश्चय से कूमार-काल से ही सांसारिक सुखों के समागम से विमुख घो । परम वैराग्य में उद्यत हुआ वह तत्वों के पूर्ण निश्चय में रुचि रखने वाला था । श्रावकधर्म की आराधना से प्रशस्त बुद्धि के कारण और गुरुजनों को उपासना में प्रवोण होने से उसने ग्रावकाचार को विधि अच्छी तरह निश्चित को थो और वह आश्चर्यजनक व रता की निधि था । एक समय वह कृष्णपक्ष को चतुर्दशी को रात्रि में श्मशानभूमि में रात्रि प्रतिमा योग से स्थित हुआ । अर्थात्- नग्न मुद्राधारक होकर धर्मध्यान में मग्न हुआ। इसी अवसर पर परिणत विस्तार वाली मध्यरात्रि में 'मगध-सुन्दरी' नाम की वेश्या ने अपने में अत्यन्त आसक विस्तृत चितवृत्ति वाले और उसको शय्यातल में प्राप्त हुए मृगवेग नाम के बोर चार से कहा[प्रियतम ! | राजोष्ठी वनदत्त को पत्नो कोनिमतो के कुच-मण्डल को अलङ्गकृत करने से उत्कृष्ट और आभूघणों में श्रेष्ठ हार इसो समय लाकर यदि मेरे लिए देते हो तो तुम मेरे रति-सुख में लोन होनेवाले प्रेमो हा अन्यथा प्रेम का अन्त करने वाले ( शत्रु) हो ।' वेश्या के वचन सुनकर काम-वेग को वश में न करनेवाले मृगवेग ने वेश्या के गृह से निकलकर अपनी फला के वल से धनदत्त सेठ के गृह का आश्रय किया और हार को चुराकर जैसे ही वह भागा वैसे ही उस हार की किरण-समूह के प्रकाश से नगर रक्षकों ने उसका भामना जान लिया, इसलिए वे उसके पीछे दोहे । अपने को दौड़ने में असमर्थ जानकर मृगवेग उस हार को नग्न वेश में कायोत्सर्ग में स्थित हुए वारिषेण के आगे छोड़कर स्वयं छिप गया। जब नगर रक्षकों ने उस हार को विशेष कान्ति से ऐसा विचार किया कि निस्सन्देह यह राजकुमार वारिषेण है, इसके माता-पिता श्रावक है. अतः अपने को भागने में असमर्थ जानकर राजकुमार ने अपने १. प्राहकस्म । २. भुरेव कलनं यस्म सः। ३. मेनपाऽभियानोति । ४. उद्यतः । ५. प्रवीणः। ६. निश्वित । ७. कृष्ण चतुर्दशीरात्रौ । ८. रात्रः। ९. मध्यरात्रौ । १०. द्रव्यस्त्रिया । ११. आसन्नः प्राप्तः । १२. 'स्तनमंहनोदार' ख. । १३. ददासि । १४. कामवेगः । १५. आश्रित्य । १६. सेवकैः । १७. पृष्ठतः प्राप्त: । १८. पलापितुं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy