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________________ चतुर्थ आश्वास लिमसुहृज्जन्मोत्सवधिभितस्य जलराभेदण्डलहरिकोत्तम्भितफेनपुम्जोमछम इव, उष्णकराभितापःखितस्प घरणिपरफुम्बिनामस्य शिशिरकरमहीपतेः प्रसावावलोकनोदय इव, उत्प्रेक्षागहति विरहिणीकपोलपाण्डरे पुरंदरसुरपुरधिकास्मितसितचोरिणि हसितसितपताकांशकाइयरे विम्बितकेतकोरजःपटलकान्तिनि दृष्टिपथमवतरति सरस्वतीकटाक्षवलक्षलासराले किरणजाले, ततः प्रथमसरमधिरहतमतङ्गाजविरमलज धिमानभुपनेनुमिच्छना करिवरिकिशोरकेण मष्ठलिससटाघवालहारिणि समोपतराशोकतरुणपल्लवधि फपिशकुसुमस्तबकसुन्वरे कुसुम्भाशकपिहितगौरीपयोधरविम्बिनि जटिगटायोतिरभन्दमन्दाकिनोडिण्डीपिण्डहृदयंगमे पुरुहूतनिकेतकेतुरफ्ताञ्चलकलितकालयोप्तकलशलक्ष्मीलिहि रोहिणीमुखयम्बमसंगणितजसरसारणिता निर्माण धाममुपतपर्यमाणे, पनरनसिधिराखेव निकटगतगगनापगासरजसंगमाविष मनसिजीत्सवप्रसापिस सितातपरोचिषि, योषिदौषधीनामधरदलेषु रागसंक्रमाविय पितामहमोलिमनोहरविषि, निखिल जगामधवलनसुधाकुम्भ रतिचिनोवविद्योपदेशिनि, मदनरनिमदोद्दीपन पिण्डे, सुरतश्रमाम्भाकपालुण्ठिनि, पौलोमीविलासपड़दा ) उज्वल रेशमी वस्त्र का विस्तृत मुखवस्त्र ही है। जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-अपने मित्र चन्द्रमा के जन्मोत्सव से विशेष प्रमुदित हुए समुद्र की अत्यन्त चञ्चल तरङ्गों द्वारा उठे हुए फेनपुञ्ज की उन्नति ही है। जो ऐसा प्रतीत होता था--मानों सूर्य के सन्ताप से दुःखी हुए पर्वत सम्बन्धी कृषक समूह के चन्द्रमारूपी राजा की प्रसन्नता के निरीक्षण का प्रादुर्भाव ही है । जो विहिणी स्त्री के गालों-सरीखा उज्वल है | जो इन्द्र नगर की कामिनियों के हास्य की उज्वलता को तिरस्कार करने वाला है, अर्थात् उसके गरीखा है। जिसके द्वारा शुभ्र ध्वजाओं का विस्तृत बस्त्र तिरस्कृत किया गया है। जिसने केतकी सप्पी के पराग-पटल की कान्ति तिरस्कृत्त की है। इसी प्रकार जो सरस्वतो ( श्रुत देवता ) के नेत्र प्रान्तों की उज्वलता से असराल-- अपर्यन्त है। तदनन्तर जव उदयकाल में चन्द्रमा एक मुहूर्त पर्यन्त इस प्रकार की उत्प्रेक्षा के योग्य हो रहा था जो ( चन्द्रमा) शीघ्र मारे हुए हाथियों के रुधिर जल को जड़ता को ग्रहण करने के इच्छक सिंहबालक द्वारा कृण्डलाकार किये हुए स्कन्ध के कसर-मण्डल का तिरस्कार करता है, अर्थात् उसकी सदुशता धारण कर रहा है। जिसकी कान्ति ( लालिमा ) चन्द्र के निकटवर्ती अशोक वृक्षों की नवीन कोपलों सरीखी है। जो अशोक वक्ष के पाण्डुर व लाल फूलों के गुच्छों-सरीखा मनोहर है। जो कुसुम्भ ( रागद्रव) रंगवाले सूक्ष्म वस्त्र से ढके हुए गौरी ( पार्वती) के कुचकलश को तिरस्कृत कर रहा है। अर्थात् उसके सदश है। जो श्री महादेव की जटाओं की कान्तियों से प्रचुर हुए गङ्गा नदी के फेनपिण्ड-सरीक्षा मनोहर है। जो इन्द्र (पूर्व दिशा का स्वामी ) के महल पर वर्तमान ध्वजाओं के रक्ताञ्चलों से वेष्टित हुए सुवर्ण अथवा चाँदो के कलश की लक्ष्मी का आस्वादन करनेवाला है। जिसको शरीर-गचना रोहिणी ( चन्द्र-प्रिया ) के मुखचुम्बन से निर्गलित हुए लाशारस से अव्यक्त लाल की गई है। फिर शीघ्र ही लाल होने के बाद जिसकी शोभा कामदेव के महोत्सव में धारण किये हुए शुभ्र छत्रसरीखो हो रही है। अर्थात् जो उज्वलता को प्राप्त हो गया है। इससे ऐसा मालूम पड़ता था-मानोंसमीपवर्ती आकाशगङ्गा की विशाल तरङ्गों के संसर्ग से ही उज्वलता को प्राप्त हुआ था। जिसको कान्ति ब्रह्माजी के मस्तक सरीखी उज्वल है। इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों कमनीय कामिनियों के ओष्ठों में तथा औषधियों के पल्लवों में अपनी लालिमा का संक्रमण ( स्थापन ) करने के कारण ही वह शुभ हो रहा है । मानों-जो समस्त लोकरूपी महल को शुभ्र करने में सुधाकुम्भ ( चूना का घड़ा ) ही है । जो रति के क्रीड़ा विज्ञान वा उपदेष्टा है । जो कामदेवरूपो हाथी के मद के उद्दीपन में जीवन है। जो स्त्रीसङ्ग के श्रम से उत्पन्न हुए जलकणों का लुण्ठन-शील है। मानों-जो इन्द्राणो का क्रोड़ा
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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