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________________ यस्तिलकचम्पूकाव्ये वर्मणे, कमेण च नमुधिरिपुविगतपर्व तानां पावस्थलागुतोष मखमणिभूयमुपगम्य संविषय मेखलाम नायकमणिगणितिमनुस्योपकण्ठदेशेषु कुण्डलमणिथियमाश्रित्य च शिरःश्रेणिष्ठ शिखण्डमण्डनमणिभाव को नु खल सकालभवनोपकारबहुकक्षाणामकान्सस्थितिवहीं रेभिरबलैः सह संगमश्राम इति विचिन्त्येवरनवरसमुदयाचलासरसः कलहंस इवाकाबादेशनिधेणिमुपेयुपि कुमुदचक्षुषि, विजृम्भमाणासु च बालसखीशिव पयोधिवेलानाम्, उपकल्पितपारणास्थिय चकोरकुलकामिनीनाम, उपाध्यायिकास्थिव युवतिरतिकतबानाम्, गति नियन्त्रणमन्त्रसिविविधाभिसारिकाभुजङ्गानाम्, तिमिरतिरस्कारसितशलाकास्चिय च भुवनलोचनमार्गाणाम्, अमतधौतातसप्तन्तुसंतानमन्थरामाममिव व्योम निर्मापयन्तीषु शिशिरकरकिरणपरम्परासु, प्रकटोभवति ५ लोकान्तराधिहानुसरतो रोहिणीपतेबिरहविनावनाय निजाङ्गनालिङ्गनमतिकाविव दययप्रतिरिचितस्तनतमालरसलिखितपत्रस्पृहणीये, हससिबिलग्नवलविलासिनि, अपहसितविरहिणीकपोलतलविलम्ब लामालकानो मुगारनितिजधान, मध्यमातङ्गकटनिकटमबलेखारेख, सुधासिन्धप्रफुल्लनीलाम्बुजद्दिनि, दर्पण है । जिसने अनुक्काम से पूर्व में पूर्व दिशा-सम्बन्धी इन्द्र के और पूर्व दिशा के प्रान्तभाग संबंधी पर्वतों के पादस्थलों ( प्रत्यन्त पर्वतस्थलों व पक्षान्तर में चरणस्थलों ) को अंगुलियों में मणि-सरोखा नखपना प्राप्त किया था। बाद में मानों-जो, उक्त पर्वतों को कटिनियों में मध्यमणि की गणना में प्रविष्ट हुआ था। इसके वाद-मानों-जिसने उक्त पूर्व दिशा के प्रान्तभाग संबंधी पर्वतों को शिखरों के अधोभूमि-भागों में माणिक्यसरीखे कुण्डलों की शोभा प्राप्त की थी। इसके बाद जिसने उक्त पर्वतों को मस्तक श्रेणियों में शिरोरत्नपना प्रास किया था। फिर जिसने निरन्तर निम्न प्रकार विचार करके 'जिन्होंने समस्त पृथ्वीमण्डल के उपकार करने में प्रीति बांधो है, उनको सर्वथा स्थिति में प्रचुरता रखनेवाले इन प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले अचलों। दुष्ट पर्वतों) के साथ निश्चय से सङ्गम करने का क्रम क्या उचित है? अर्थात् नहीं है। जिसने उस प्रकार आकाश देशरूपी सीढ़ी प्राप्त की थी, जिस प्रकार कलहंस उदयाचल के अग्रसरोवर से उड़कर आकाश प्राप्त करता है। इसी प्रकार जब चन्द्रमा की ऐसी किरण-श्रेणियाँ प्रसारित हो रही थीं, जो समुद्र-तरङ्गों की बाल सखो-सरीखों, चकोर पक्षियों के समूह की कामिनियों के लिए मारणा ( वृत्तान्त भोजन ) देने वाली सों, युवति कामिनियों के संभोग कपटों को सिखाने के लिए अध्यापिकाएं जैसी, व्यभिचारिणी स्त्रीरूपी सपिणियों के गमन को रोकने वाली मन्त्र सिद्धि सरीखीं, शोभायमान हो रही थीं। जो जगत में स्थित प्राणी-समूह के नेत्र मार्ग में वर्तमान तिमिर नामक नेत्ररोग को नष्ट करने वाली उज्वल शलाकाओं के समान सुभोभित हो रहीं थीं और जो आकाश को इस प्रकार का, जिसकी दीर्घता, अमृत द्वारा उज्वल किये हुए अलसी के तन्तु समूह से मन्दगामी है, निर्मापित करती हुई सरीस्त्री सुशोभित हो रही थीं। इसी प्रकार जब मृग-सरीखा चन्द्र-चिह्न प्रकट हो रहा था। जो कि चन्द्र के हृदय में प्रतिबिम्बित हुई (स्थासक की तरह स्थित हुई ) स्तनरूपी तमाल रस से लिखी हुई पत्र रचना-सरीखा मनोहर था। इससे जो ऐसा प्रतीत होता था-मानों पूर्वविदेह क्षेत्र से इस भरत क्षेत्र पर आते हुए चन्द्र का अपनी प्रिया ( रोहिणी) से विनाश करने के लिए, अपनी प्रिया रोहिणी के आलियन के सम्बन्ध से हो मानो जो उक्त प्रकार की पत्र रचना से मनोज्ञ था।" जो हँस के पक्ष-मूल पर लगे हुए बोवाल-सरोखा शोभायमान हो रहा था। जिसने विरहिणी स्त्री के गालों के स्थल पर शोभायमान होते हुए विखरे हुए केश तिरस्कृत किये हैं। जो कुमुद ( चन्द्र विकासो कमल ) के मध्य में स्थित हुए भ्रमर-समूह के साथ सदृशाता धारण करता है। जिसकी सदशता इन्द्र के ऐरावत हाथी के गण्डस्थल के उपरितन भाग में वर्तमान दान रेखा के साथ होती है। जिसमें क्षीर सागर में विकसित १. उत्प्रेक्षालंकार।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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