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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कुमुदकुश्मलेखिक विघटमानेषु चकवाकमियुनेषु, मुनिन सबलेविध संकोचनोचितेषु पहलवकलोकसृपाठोपटे, प्रदीपालिका स्वियोन्मियन्तीषु विरहिणीमा मयनशिखिशिशाम, सुरभोगिभुजिष्यागणेष्यिवाभिमयोन्मुखेपु तिरदनकुलेषु, समुच्छलति घ पुरदेवप्तानां प्रासावपरिसरेषु चामरधारिणीमा रणमणिमञ्जीरमणिप्तमनोहारिणि मबङ्गानाशासकोलाहले, मुखरीमवत्सु मध्यमानेवर्णवार्णःस्विवाम्यर्णतर्थकरघनाकर्णनोचीणेन धनुष्याणां दोघरम्भितररवेण गोपुरमुतेषु, विधिजयमाचरितुमिच्छतामसमशरसनिफाना दधिचन्दनतिलकेष्विव , नयनविषयताश्वतरा नक्ष प्रविम्बेषु, इत्तश्च दुश्फयवनविशि चिरमवेशितसुधामूतिसाहायकेन तदासनतरागमनबिलोकनादिव पुरःसत्वरमुत्रगिरिशिखरान्तरालादुच्चलमानेन मदनसम्पेन दलितफरतरगर्भधूलिनिकर इय, शिरःपिण्जफष्टयनमियोवस्तहस्तेन हरिस्सिना मुहहरुपरिविकीर्यमाणकरपारिशीकरोल्फरागम इय, गगनपुरप्रवेाभाचरतः खण्ठपरशुनूडामणेः पुरस्तातुपुरधिकाभिरुचीयमाणप्लाजामलिसकर धन विभाघरीयपूषवनदर्शमायासोबतो निशीथिनीनापस्पान्तराप्रसारितसितकालमुनापाप्रसर दव, संध्योपासना सम्बन्धी अलिरूपी फुलों को अविकसित कलियाँ उस प्रकार विमुच्यमान ( समाप्त ) हो रही थों जिस प्रकार जुआरी के वस्त्र, संध्या में विमुच्यग्याता । लोहे -दुर में दान पर लगाए हुए ) होते हैं । जब चबा-चकवी के जोड़े उस प्रकार विघटमान ( वियोग प्राप्त करने वाले ) हो रहे थे जिस प्रकार कुमुद पुष्पों ( चन्द्र निकासी कमलों की कलियां विघटमान (विकसित ) हो रही थीं। जब विद्वानों की पुस्तकों के अवयव जस प्रकार संकोचन (संपाटन...परस्पर छेदन या संकेतन-पलटना योग्य हो रहे थे जिस प्रकार रात्रि के अवसर पर अगस्ति वृक्ष के पत्ते संचित होते है। जब विरहिनी स्त्रियों की कामाग्नि की ज्वालाएँ उसप्रकार उद्दीप्त होरही थीं, जिसप्रकार दोपक कलिकाएं रात्रि में उद्दीप्त होती हैं एवं जब हाथियों के समूह उस प्रकार अभिनय-पूर्ववृत्तानुकरण में तत्पर हो रहे थे जिरा प्रकार कामी देवताओं को वेश्या-श्रेणियाँ अभिनय में उन्मुख-शय्यागमन तत्पर होती हैं । जब नगर देवताओं के चैत्यालय सम्बन्धी प्राङ्गणों में, मृदङ्ग, ढोल अथवा भेरी व शङ्खवाजों की ध्वनि, जो कि चैवर धारण करने बालो स्त्रियों के शब्द करते हुए रत्नघटित नूपुरों के मणित ( रतिकूजित ) सरीस्त्री चित्त का अनुरूजन करने वाली थी, प्रकट हो रही थी। जब नगर के प्रतोली, द्वार उत्तम गायों को दीर्घ गोध्वनि । रंभाने ) के शब्द से, जो कि समीपवती बछड़ों के शब्द श्रवण से उत्कृष्ट है, उस प्रकार शब्दायमान हो रहे थे जिसप्रकार देव व दानवों द्वारा विलोड़न किये जाने वाले समुद्र-जल, शब्दायमान होते हैं और जब दिग्विजय करने के इच्छुक कामदेव सम्बन्धी सैनिकों के दही-मिश्रित चन्दन तिलक-सरीखे शोभायमान होनेवाले नक्षत्र-मण्डल दुष्टिमोचरता को प्राप्त कर रहे थे। इसी प्रकार जब एक पाश्र्व भाग में पूर्व दिशा में चन्द्रमा का किरण-समूह दृष्टिमार्ग प्राप्त कर रहा था। जो इस प्रकार की ( कल्पना ) प्राप्त कर रहा था। __जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-कामदेव की सेना द्वारा, जो कि [ अपने मित्र ] चन्द्रमा के निकटतर आगमन के देखने से ही मानों सामने शीघ्र ही उदयाचल की शिखर के मध्यभाग से सन्मुख जा रही थी और जिसने चन्द्रमा की सहायता चिरकाल से चाही है, तोड़े गए कर्पूर वृक्षों की गर्भधूलि की श्रेणी ही है। जो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों-ऐरावत हाथी द्वारा, मस्तक कुम्मों के खुजाने के बहाने से उठाए हुए शुण्डादण्ड से वारवार ऊपर फेंके जाने वाले शुण्डा-जलकणों के समूह का आगमन हो है। जो ऐसा मालूम पड़ता था—मानों आकाशरूपी नगर में प्रवेश करते हुए चन्द्रमा के सामने नक्षन-कामिनियों द्वारा कपर फेंकी जानेवाली लाजालियों ( आर्द्रतण्डुल-आदि ) की श्रेणी ही है। जो ऐसा प्रतीत होता था-मानों रात्रिरूपी वधू के मुख-दर्शनार्थ आते हुए चन्द्रमा के बीच में फैलाया हुआ (तिरस्करिणी किया हुआ-जवनिका
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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