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है, उसमें 'कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आधार मानकर 'सोमदेव' ने राजशास्त्र विषय को सूत्रों में निवद्ध किया है । संस्कृत वाङ्मय में 'नीतिवाक्यामृत' का भी विशिष्ट स्थान है और जीवन को व्यवहारिक निपूणता से ओतप्रोत होने के कारण वह गन्ध भी सर्वथा प्रशंसनीय है ! उस पर भी पी गुमलाल जी शास्त्री ने हिन्दी टीका लिखी है। इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि 'सोमदेव' की प्रज्ञा अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि को थी और संस्कृत भाषा पर उनका असामान्य अधिकार था।
'सोमदेव' ने अपने विषय में जो कुछ उल्लेख किया है, उसके अनुसार वे देवसंध के साधु 'नेमिवेव' के शिष्य थे। वे राष्ट्रकूट सम्राट् 'कृष्ण' तृतीय ( ९२९-९६८ ई० ) के राज्यकाल में हुए । सोमदेव के संरक्षक 'अरिकेसरी' नामक चालुक्य राणा के पुत्र 'वाद्यराज' या 'बहिग' नामक राजकुमार थे। यह वंश राष्ट्रकूटो के अधीन सामन्त पदवीधारी था । 'सोमदेव ने अपना ग्रन्थ 'गङ्गधारा' नामक स्थान में रहते हुए लिखा । धारवाड़ कर्नाटक महाराज और वर्तमान 'हैदराबाद' प्रदेश पर राष्ट्रकूटों का अन्वण्ड राज्य था। लगभग आठवीं शती के मध्य से लेकर दशम शती के अन्त तक महाप्रतापी राष्ट्रकूट साट् न केवल भारतवर्ष में बल्कि पश्चिम के बर व साम्राज्य में भी अत्यन्त प्रसिद्ध थे | मर वों के साथ उन्होंने विशेष मैत्री का व्यवहार रक्ता
और उन्हें अपने यहां व्यापार की सुविधाएं दो। इस वंश के राजाओं का विन्द 'बल्लभराज' प्रसिद्ध पा, जिसका रूप बर व लेखकों में बलहरा पाया जाता है । राष्ट्रकूटों के राज्य में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन को चौमुखी उन्नति हुई। उस युग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आधार बनावार दो चम्पू अन्थों की रचना हुई। पहला महाकवि त्रिविक्रमकृत 'नलचम्पू' है। 'त्रिविक्रम राष्ट्रकूट सम्राट् इन्द्र तृतीय ( ९१४-९१६ ई.) के राजपण्डित थे । इस चम्धू ग्रन्थ की संस्कृत शैलो श्लेष प्रधान शब्दों से भरी हुई है और उससे राष्ट्रकूट संस्कृति का सुन्दर परिचय प्राप्त होता है।
त्रिविक्रम के पचास वर्ष वाद 'सोमदेव' ने 'यशस्तिलकचम्पू' को रचना को । उनका भरसक प्रयत्न यह था कि अपने युग का सच्चा चित्र अपने गद्यपद्यमय अन्ध में उतार दें। निःसन्देह इस उद्देश्य में उनको पूरी सफलता मिली ! 'सोमदेव' जैन साधु थे और उन्होंने 'यशस्तिलक' में जेनयम को व्याख्या और प्रभावना को ही सबसे ऊंचा स्थान दिया है। उस समय कापालिक, कालामुख, शंचन चार्वाक-आदि जो विभिन्न सम्प्रदाय लोक में प्रचलित थे, उनको शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतार कर तुलनात्मक दृष्टि से 'सोमदेव ने उनका अच्छा परिचय दिया है। इस दृष्टि से यह ग्रन्म भारत के मध्यकालीन सांस्कृतिक इतिहास का उमड़ता हुआ स्रोत है, जिसकी बहुमूल्य सामग्नी का उपयाग भविष्य के इतिहास ग्रन्थों में किया जाना चाहिए । इस क्षेत्र में श्रीकृष्णकान्त हन्दीको का कार्य, जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है, महत्त्वपूर्ण है। किन्तु हमारी सम्मति में अभी उस कार्य को आगे बढ़ाने को आवश्यकता है, जिससे 'सोमवेव' की श्लेषमयी शैली में भरी हुई समस्त सामग्री का दोहन किया जा सके । भविष्य में किसी अनुसन्धान प्रेमी विद्वान् को यह कार्य सम्पन्न करना चाहिए।
___'यशस्तिलक' को कथा कुछ उलझी हुई है । 'बाण' की कादम्बरी के पात्रों की तरह इसके पात्र भो कई जन्मों में हमारे सामने आते हैं। बीच-बीच में वर्णन बहुत लम्बे हैं, जिनमें कथा का सूत्र खो जाता है । इससे बचने के लिये संक्षिप्त कथासूत्र का यहाँ उल्लेग्ड किया जाता है।
प्राचीन समय में 'यौधेय' नाम का जनपद था । वहाँ का राजा 'मारिवत्त' था। उसने वीरभैरव' नामक अपने पुरोहित की सलाह से अपनी कुलदेवी चण्डमारी को प्रसन्न करने के लिये एक सुन्दर पुरुप और स्त्री की बलि देने का विचार किया और चाण्डालों को ऐसा जोड़ा लाने की आज्ञा दी। उसी समय 'सुदत्त'