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________________ प्राक्कथन संस्कृत के गद्य-साहित्य में अनेक कथानन्थ हैं। उनमें बाण की 'कादम्बरों', सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू और घनपाल को 'तिलकमञ्जरी'-ये तीन अत्यन्त विशिष्ट ग्रन्थ हैं। बाण ने कादम्बरी में भाषा और कथावस्तु का जिस उच्च पद तक परिमार्जन किया था उसी आदर्श का अनुकरण करते हुए सोमवेध और धनपाल ने अपने ग्रन्थ लिखे। सांस्कृत भाषा का समृद्ध उत्तराधिकार क्रमशः हिन्दी भाषा को प्राप्त हो रहा है। तदनुसार ही 'कादम्बनी' के कई अनुबाद हिन्दी में हुए हैं। प्रस्तुत पुस्तक में श्री० सुन्दरलालजी शास्त्री ने 'सोमदेव' के 'पशस्तिलकचम्पू का भापानुवाद प्रस्तुत करके हिन्दी साहित्य की विशेष सेवा की है। हम उनके परिश्रम और पाण्डित्य की प्रशंसा करते हैं। इस अनुवाद को करने से पहले 'यशस्तिलकचन्पू के मूल पाठ का भी उन्होंने संशोधन किया और इस अनुसंधान के लिये जयपुर, नागौर, सीकर, अजमेर और बद्धनगर के प्राचीन शास्त्रभंडारों में छानबीन करके 'यशस्तिलकचम्पू' की कई ह० लि. प्राचीन प्रतियों से मूल पाठ और अर्थों का निश्चय किया। इस श्रमसाध्य कार्य में जान्हें लगभग ८-१० वर्ष लगे । किन्तु इसका फल 'यशस्तिलकचम्पू के अधिक प्रामाणिक संस्करण के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है। 'यशस्तिलक' का पहला संस्करण मूल के आठ आश्वास और लगभग साढ़े चार आश्वासों पर 'श्रुतसागर' की सं० टोका के साथ १९०१-१९०३ में निर्णयसागर' यंत्रालय से प्रकाशित हुआ था। उस ग्रन्थ में लगभग एक सहस्र पृष्ठ हैं । उसो की सांस्कृतिक सामग्री, विशेषतः धार्मिक और दार्शनिक सामग्री को आधार बनाकर श्री कृष्णकान्त हन्दीकी ने 'यणस्तिलक और इण्डियन कल्चर' नामका पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ १९४९ में प्रकाशित किया, जिससे इस योग्य ग्रन्थ की अत्यधिक ख्याति विद्वानों में प्रसिद्ध हुई। उसके बाद श्री सुन्दरलालजी शास्त्री का 'यशस्तिलक' पर यह उल्लेखनीय कार्य सामने आया है। आपने आठौं आश्वासों के मूलपाठ का संशोधन और भापाटीका तैयार कर ली है। तीन आश्वास प्रथमखण्ड के रूप में १९६० में प्रकाशित हो चुके हैं और शेष पांच आश्वास टीका-सहित दूसरे खण्ड के रूप में प्रकाशित होंगे। प्राचीन प्रतियों की छानबीन करते समय श्री सुन्दरलालजी शास्त्री को 'भट्टारक मुनीन्द्रकीति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन' नागौर के शास्त्रमण्डार में 'यशस्तिलक-पब्जिका' नामका एक विशिष्ट ग्रन्थ मिला, जिसके रचयिता 'श्रीदेव' नामक कोई विद्वान थे। उसमें आठों आश्वासों के अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्दों का निघण्ट या कोश प्राप्त हुआ। इसकी विशेप चर्चा हम आमें करेंगे। इसे भी श्री सुन्दरकालजो शास्त्री ने परिशिष्ट दो में स्थान दिया है । इसप्रकार ग्रन्थ को स्वरूप-सम्पन्न बनाने में वर्तमान सम्पादक और अनुवादक श्री सुन्दरलालजी शास्त्री ने जो महान् परिश्रम किया है, उसे हम सर्वथा प्रदांसा के योग्य समझते हैं । आशा है इसके आधार से संस्कृत वाल्मय के 'यशस्तिलकचम्पू' जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ का पुनः पारायण करने का अवसर प्राप्त करेंगे। सोमवेव' ने 'यशस्तिलकचम्पू' की रचना ९५९ ईसवी में की। 'यशस्तिक' का दूसरा नाम 'यशोवरमहाराजचरित' भी है, क्योंकि इसमें उज्जयिनी के सम्राट् यशोधर का चरित्र कहा गया है। अर्थात्'यशोधर' नामक राजा की कथा को आधार बनाकर व्यवहार, राजनीति, धर्म, दर्शन और मोक्ष सम्बन्धी अनेक विषयों की सामग्री प्रस्तुत की गई है । 'सोमदेव' का लिखा हुआ दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्य 'नीतिवाक्यामत'
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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