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________________ अष्टम आश्वासः तत्कालपि तवयानं स्फुरवेकानमात्मनि । उच्च फर्मोच्चयं भिन्ना समिव क्षणात् ।। १७४।। *फल्परम्यम्बुधिः शम्यश्चलकै नोवलम्पितुम् । 'कल्पासमः पुनवतिस्तं' मुष्टः पौषमामयेत् ।।१७५।। रुपे मरुति चित्तेऽपि तथान्यत्र या विशन । लभेत कामितं तदवात्माना परमात्मनि ॥१७६।। "धराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसङ्गस्थिरचितसा | "मिस्मयसहत्वं च पञ्च योगस्य हेतवः ॥१७७॥ १३आधिच्याधिविपर्यास "प्रमावालस्य "विभ्रमाः । १अलाभः सङ्गितास्थय मेते तस्यान्तरायकाः ॥१७८॥ काल तक मन का स्थिर होना अत्यन्त कठिन है ।। १७३ ॥ जिसप्रकार वन मणभर में महान पर्वत को चूरजूर कर डालता है उसीप्रकार आत्मा में प्रकट हुआ अन्तर्मुहुर्त कालवाला निश्चल शुक्लध्यान भी महान पातिया कर्मममह को विदीर्ण ( मष्ट ) कर देता है ।। १७४ ।। जिस प्रकार सैकड़ों कल्पकालों ( युगान्तरों) तक हस्त को चुल्लुओं से समुद्र के जल को उलीचने पर भी समुद्र खाली नहीं होता, परन्तु प्रलयकालीन प्रचण्ड बायु उसे बार-बार शोषण में ला देतो है-सुखा देती है उसी प्रकार आत्मा में प्रकट हुआ शुक्लध्यान भी अन्तर्मुहूर्त में पातिया कर्म-समह को नष्ट कर देता है।। १७५ | जैसे कामतत्व कमनीय कामिनो। आदि में व दूसरे के भारीर में प्रवेश करना आदि में एवं बाह्य वस्तुओं में मन को स्थिर करने से अभिलषित यस्तु (कामतत्व-आदि) प्राप्त होती है वैसे ही आत्मा के द्वारा परमात्मा में मन स्थिर करने से परमात्मपद की प्राप्ति होती है ।। १७६ ।। निम्नप्रकार पाँच प्रशस्त गुण धर्मध्यान की उत्पत्ति में कारण हैं । वैराग्य ( देखे हुए व आगामी काल में आनेवाले इन्द्रियों के विषयों में तृष्णा का अभाव ), ज्ञानसम्पत्ति ( बंध व मोक्ष की प्राप्ति के उपाय का ज्ञान ), असङ्ग । वाह्य व आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग ), स्थिरचित्तता (सप, स्वाध्याय व ध्यान कर्म में चित्त को स्थिर करने का प्रयत्न) व उमिस्मयसहत्व ( शारीरिक क्षुधा-तृषा-आदि, मानसिक-शोक-आदि व आगन्तुक परोपहों-दुःखों ) के उद्रेक ( वृद्धि ) पर विजय प्राप्त करना ।। १७७ ॥ निम्नप्रकार ९ दुर्गुण धर्मध्यान के अन्तराय (विघ्नवाघा उपस्थित करने वाले ) हैं। आचि ( दौर्मनस्य-मानसिक पीड़ा या कुत्सित मनोवृत्ति ), व्याधि ( दोष-वेपम्य-शारीरिक रोग), विपर्यास ( अतत्व में तस्व का आग्रह ), प्रमाद ( तत्वज्ञान की प्राप्ति में अनादर ), आलस्य (प्राप्त हुए तत्व का अनुष्ठान न १. युगान्तरः। २.प्रलयकालोत्पन्न। ३. अम्बुधि। ४. कामसत्वादो। ५. परकायप्रवेशादौ। ६. अन्यत्र दाये वस्तुनि यथा वाञ्छितं भवनि । ७. दृष्टागामिबिधयेषु तृष्ण्यं । ८. बन्धमोक्षोपायविवेकः । ९. बाह्याभ्यन्तरारिग्रह त्यागः। १०. तपास्वाध्यायल्यानकर्मणि मनसोविचलितपयलः। ११. शारीरमानसागातुनपरोषहोकविजयित्वं । 'पाणस्य क्षुत्पिपासे , मनसः शोकमोहने, जन्ममृत्यू शरीरस्य पशूमिरहितः शिवः' । तथा च श्रीभागवतटीकाया'शोकमोही जरामृत्यू, क्षुत्पिपासे षड्मयः'। १२. योगतत्वमात्ममनःसावधानचित्तवृत्तिनिरोधः, म चिसवृत्तिनिरोघमात्रमन्यथा सुप्तमूच्छितादीनामपि योगतारतः । *.तथा चोकं प्रबोधसारे-'निवेदोक्ष्यसम्पत्तिः स्वान्सस्पैयं रहास्थितिः । विधियोमिसहत्वं तु साधूनां व्यानहेतवः ॥१॥ तथा चोक्तं तत्वानुशासने-'सत्यागः कषायाणा निपहो व्रतधारणं । मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मने ॥१॥ १३. बाधिदौमनस्यं । १४. दोषवैषम्य व्याधिः । १५. 'परमतभ्रान्तिः' टिस, 'अतत्वे तत्वाभिनिवेशो विपर्याप्त:' टि० ० ० पञ्जिकायां ।। १६. तत्वाधिगमानादरः प्रभादः। १७. लब्धस्यापि तत्वस्याननुष्ठानमालस्यं। १८. तत्वातत्वयोः समा बुद्धिर्विनमः । ११. स्यपरपोरशानादम्मस्ततत्वासामिरलाभः । २०. सत्यपि तत्वज्ञाने सुखदुः साधनोत्कीमाभिनिवेशः संगिता । २१. योगत्प मनसाऽक्षान्तिरस्थय । २२. ध्यानस्य । न तथा दोक्तं प्रचोपसार--स्वान्तास्थैर्य विपर्यासं प्रमादालस्यविभ्रमाः। रौद्रााषिर्यवास्थानमेत प्रत्यूहदायिनः ।।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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